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नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
यही है दिल का मज़मून अब तुम्हारी उम्र क्या होगी
हमारे दरमियाँ अब एक बेजा-तर ज़माना है
जौन एलिया
ग़ज़ल
दहर में 'मजरूह' कोई जावेदाँ मज़मूँ कहाँ
मैं जिसे छूता गया वो जावेदाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
नज़्म
कोई 'आशिक़ किसी महबूबा से!
कोई इक़रार न मैं याद दिलाऊँगा न तुम
कोई मज़मून वफ़ा का न जफ़ा का होगा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मौज़ू-ए-सुख़न
अपने अफ़्कार की अशआर की दुनिया है यही
जान-ए-मज़मूँ है यही शाहिद-ए-मअ'नी है यही
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
शाहिद-ए-मज़्मूँ तसद्दुक़ है तिरे अंदाज़ पर
ख़ंदा-ज़न है ग़ुंचा-ए-दिल्ली गुल-ए-शीराज़ पर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
पढ़ता नहीं ख़त ग़ैर मिरा वाँ किसी 'उनवाँ
जब तक कि वो मज़मूँ में तसर्रुफ़ नहीं करता
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या-रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है फ़साना इश्क़ का डूबा है साहिल अश्क में
मेरे मज़मूँ का ये उनवाँ तल्ख़ियाँ ही ठीक हैं