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नज़्म
ख़्वाब-ए-सहर
इब्न-ए-मरयम भी उठे मूसी-ए-इमराँ भी उठे
राम ओ गौतम भी उठे फ़िरऔन ओ हामाँ भी उठे
असरार-उल-हक़ मजाज़
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ग़ज़ल
वो दिखाते हैं किसे जल्वा-ए-पिन्हाँ अपना
क्या करें हाल बयाँ मूसी-ए-इमराँ अपना
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
फिर वो मूसी का असा नील का शक़ हो जाना
फ़ौज फ़िरऔन का मैं डूबता मंज़र देखूँ
अली ज़हीर रिज़वी लखनवी
ग़ज़ल
न थे आपे में मूसी वर्ना उन का हौसला क्या था
जो बोल उठते कि आ पर्दा से बाहर देखता क्या है
साहिर देहल्वी
ग़ज़ल
नहीं ये मो'जिज़ा मौक़ूफ़ कुछ मूसी-ए-इमराँ पर
प्याले हैं यद-ए-बैज़ा कफ़-ए-पुर-नूर-ए-मस्ताँ पर