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शेर
इश्क़ में निस्बत नहीं बुलबुल को परवाने के साथ
वस्ल में वो जान दे ये हिज्र में जीती रहे
जाफ़र अली खां ज़की
ग़ज़ल
कुछ दाग़ मोहब्बत के छुपाने के लिए हैं
कुछ ज़ख़्म हैं जो सब को दिखाने के लिए हैं
ज़ाहिद अली ख़ान असर
ग़ज़ल
ज़िंदगी क्या है मुअम्मा है कि अफ़्साना है
हर तरफ़ जल्वा-बदामाँ रुख़-ए-जानाना है
ज़ाहिद अली ख़ान असर
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ग़ज़ल
दिल-ए-हज़ीं है तिरे ग़म में बे-क़रार बहुत
ये चश्म-ए-ग़म है शब-ओ-रोज़ अश्क-बार बहुत
ज़ाहिद अली ख़ान असर
ग़ज़ल
न जाने क्यों ये जहाँ दर-ब-दर है क्या कहिए
रफ़ाक़तों का सफ़र मुख़्तसर है क्या कहिए
ज़ाहिद अली ख़ान असर
ग़ज़ल
अफ़्शाँ चमक के ज़ुल्फ़-ए-दोता ही में रह गई
कुछ रौशनी सी हो के सियाही में रह गई
नवाब कल्ब अली ख़ान
शेर
मैं ने कहा कि दावा-ए-उल्फ़त मगर ग़लत
कहने लगे कि हाँ ग़लत और किस क़दर ग़लत
नवाब मोहम्मद सुफ़ अली खाँ बहादुर
ग़ज़ल
तेरी निगाह-ए-नाज़ जो नावक-असर न हो
तकलीफ़-ए-चारा-साज़ी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर न हो