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शेर
ज़ुल्फ़ों की नागनी तो तिरी हम ने केलियाँ
पर अबरुवाँ से बस नहीं चलता कि हैं पंकीत
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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ग़ज़ल
इशक़-ए-पेचाँ की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है
जौन एलिया
नज़्म
एक आरज़ू
सफ़ बाँधे दोनों जानिब बूटे हरे हरे हों
नद्दी का साफ़ पानी तस्वीर ले रहा हो