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ग़ज़ल
जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं ये समझूँगा कि शमएँ दो फ़रोज़ाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएँ जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
दोस्ती का हाथ
तुम्हारे बाम की शमएँ भी ताबनाक नहीं
मिरे फ़लक के सितारे भी ज़र्द ज़र्द से हैं