aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "takaan"
ताबाँ अब्दुल हई
1715 - 1749
शायर
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
1914 - 1993
महताब राय ताबां
अनवर ताबाँ
1944 - 2016
अबरार हुसैन तपाँ
निहाल ताबां
लेखक
ज़फ़र ताबाँ
संपादक
शमसुद्दीन ताबाँ
ताबाँ नक़वी अमरोहवी
ताबाँ ज़ियाई
ताबाँ जमाली अल-क़ादरी
मुस्तफ़ा मुहम्मद तहान
मुस्तफ़ा तह्हान
ताबाँ प्रेस, तेहरान
पर्काशक
तपन दास
बूद तो इक तकान है सो ख़ुदातेरी भी क्या तकान में गुज़री
हुआ है दैर-ओ-हरम में जो मोतकिफ़ वो यक़ीनतकान-ए-कश्मकश-ए-एहतिमाल है शायद
इक हवा-ए-बे-तकाँ से आख़िरश मुरझा गयाज़िंदगी भर जो मोहब्बत के शजर बोता रहा
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब थापर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था
पान हिन्दुस्तानी तहज़ीब का एक अहम हिस्सा है। हिन्दुस्तान के एक ब़ड़े हिस्से में पान खाना और खिलाना समाजी राब्ते और तअल्लुक़ात को बढ़ाने और मेहमान-नवाज़ी की रस्म को क़ायम रखने का अहम ज़रिया है। पान की लाली अगर महबूब के होंठों पर हो तो शायर इसे सौ तरह से देखता और बयान करता है। आप भी मुलाहिज़ फ़रमाइये पान शायरी का यह रंगः
तकानتکان
fatigue, tiredness
झटकना, छोड़ना, हिलाना, थकावट, थकन।
टकोंٹکوں
throw away price
टिकेंٹکیں
stay, sit
ताकेंتاکیں
see//gaze/stare
Palestine Sazishon Ke Narghe Me
इस्लामिक इतिहास
दीवान-ए-ताबाँ
दीवान
मय-ख़ाना तह-ए-हर्फ़
अनुवाद
Siyasat Aur Taqat
अननोन ऑथर
राजनीतिक
Intekhab Siraj Aurangabadi
संकलन
Deewan-e-Taban
सर्वरूल हुदा
जिद्द-ओ-जहद-ए-आज़ादी
अन्य
शेरिय्यात से सियासियात तक
आलोचना
Gulam Rabbani Taban Shakhsiyat Aur Adabi Khidmat
अजमल अली अजमली
जीवनी
Nuqoosh-e-Taban
दाऊद अशरफ़
शोध
Nawa-e-Awara
काव्य संग्रह
ज़ौक-ए-सफ़र
Istilahat-e-Hadees
महमूद अल-तहान
Mehr-e-Taban
इब्राहिम अली ख़ाँ
हदीस-ए-दिल
चले तो आए हैं हम ख़्वाब से हक़ीक़त तकसफ़र तवील था अब तक तकान बाक़ी है
तुझ से ताबाँ जबीन-ए-मुस्तक़बिलऐ मिरे सीना-ए-उमीद के दिल
मिरे नसीब में रस्तों की धूल लिक्खी थीन मिल सकी मुझे मंज़िल तकान से पहले
तमाम दिन की मशक़्क़त-भरी तकान के ब'अदतमाम रात मोहब्बत से फिर जगाऊँ उसे
अगर हों गोया तो फिर बे-तकान बोलते हैंमगर ये लोग लहू की ज़बान बोलते हैं
तकान है तो सँभल जा मगर न ऊँघ कभीसफ़र की धूल बदन का ग़ुबार बाक़ी रख
आँसू रुके थे आँख में धड़कन का हो बुराऐसी तकान दी की प्याली छलक गई
उगे जो सुब्ह का सूरज तो इक मशीन है वोढले जो शाम तो फिर जिस्म की तकान सा है
ऐ मिरे दोस्त थक न जाऊँ कहींतिरी आवाज़ की तकान से मैं
तकान ओढ़ तो लें हम नई मसाफ़त कीतराश दें न हवाएँ कहीं हमारे पर
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