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नज़्म
निसार मैं तेरी गलियों के
बुझा जो रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम
कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
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ग़ज़ल
छोड़ना घर का हमें याद है 'जालिब' नहीं भूले
था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िंदाँ तो नहीं था
हबीब जालिब
शेर
देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
आतिशीं-पा हूँ गुदाज़-ए-वहशत-ए-ज़िन्दाँ न पूछ
मू-ए-आतिश दीदा है हर हल्क़ा याँ ज़ंजीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
दो इश्क़
इस राह में जो सब पे गुज़रती है वो गुज़री
तन्हा पस-ए-ज़िंदाँ कभी रुस्वा सर-ए-बाज़ार