aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "ہڈی"
जिगर मुरादाबादी
1890 - 1960
शायर
मुनव्वर राना
1952 - 2024
अली ज़रयून
ज़ुबैर अली ताबिश
हैदर अली आतिश
1778 - 1847
रसा चुग़ताई
1928 - 2018
मीर अनीस
1803 - 1874
अली सरदार जाफ़री
1913 - 2000
शाद अज़ीमाबादी
1846 - 1927
फ़ानी बदायुनी
1879 - 1941
फ़ना निज़ामी कानपुरी
1922 - 1988
अज़हर इनायती
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
1878 - 1931
लियाक़त अली आसिम
1951 - 2019
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
1803/4 - 1875
मुन्नी ने कहा, “गाली क्यों देगा? क्या उसका राज है?” मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भवें ढ़ीली पड़ गईं। हल्कू की बात में जो दिल दहलाने देने वाली सदाक़त थी। मालूम होता था कि वो उसकी जानिब टकटकी बाँधे देख रही थी। उसने ताक़ पर से रुपये उठाए और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली, “तुम अब की खेती छोड़ दो। मज़दूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी।...
“लौंडिया सोला से एक दिन ज़्यादा की हो तो सौ जूते सुब्ह, सौ जूते शाम, ऊपर से हुक़्क़ा का पानी।” मगर उनकी किसी ने न सुनी। वो अपनी गोरी बेगम की नाव पार लगाने के लिए ख़्वाही न ख़्वाही दुंद मचाती थीं।रुख़साना बेगम थीं कि बस कोई देखे तो देखता ही रह जाए। जैसे पहली का नाज़ुक शरमाया हुआ चाँद किसी ने उतार लिया हो। शक्ल देखते जाओ पर जी न भरे। तोलो तो पाँचवी के बा'द छटा फूल न चढ़े। रंगत ऐसी जैसे दमकता कुंदन... जिस्म में हड्डी का नाम नहीं जैसे सख़्त मैदे की लोई पर गाय का मक्खन चुपड़ दिया हो। निस्वानियत इस ग़ज़ब की जैसे दर्जन भर औरतों का सत निचोड़ कर भर दिया हो। गर्म-गर्म लपटें सी निकलती थीं, शायद ब-क़ौल फुफ्फो सोला बरस की होंगी, मगर उन्नीस-बीस की उठान थी, बहनों ने मामूँ को पच्चीसवाँ साल बताया था। उन्हें ज़रा सा तकल्लुफ़ तो हुआ मगर फिर टाल गए, कमसिनी तो कोई बड़ा जुर्म नहीं।
एक अजीब क़िस्म का खिंचाव उसके आज़ा में पैदा हो गया था जिसके बाइस उसे बहुत तकलीफ़ होती थी। इस तकलीफ़ की शिद्दत जब बढ़ जाती तो उसके जी में आता कि अपने आपको एक बड़े हावन में डाल दे और किसी से कहे, “मुझे कूटना शुरू कर दो।”बावर्चीख़ाने में गर्म मसाला कूटते वक़्त जब लोहे से लोहा टकराता और धमकों से छत में एक गूंज सी दौड़ जाती तो मोमिन के नंगे पैरों को ये लरज़िश बहुत भली मालूम होती थी। पैरों के ज़रिये से ये लरज़िश उसकी तनी हुई पिंडलियों और रानों में दौड़ती हुई उसके दिल तक पहुंच जाती, जो तेज़ हवा में रखे हुए दिये की तरह काँपना शुरू कर देता।
सौगंधी को अपने जिस्म में सबसे ज़्यादा अपना सीना पसंद था। एक बार जमुना ने उससे कहा था, “नीचे से इन बंब के गोलों को बांध के रखा कर, अंगिया पहनेगी तो इनकी सख्ताई ठीक रहेगी।”सौगंधी ये सुन कर हंस दी, “जमुना तू सबको अपनी तरह समझती है। दस रुपये में लोग तेरी बोटियां तोड़ कर चले जाते हैं। तू तो समझती है कि सब के साथ भी ऐसा ही होता होगा... कोई मुवा लगाये तो ऐसी-वैसी जगह हाथ... अरे हाँ, कल की बात तुझे सुनाऊं, राम लाल रात के दो बजे एक पंजाबी को लाया। रात का तीस रुपये तय हुआ... जब सोने लगे तो मैंने बत्ती बुझा दी... अरे वो तो डरने लगा... सुनती हो जमुना? तेरी क़सम अंधेरा होते ही उसका सारा ठाठ किरकिरा हो गया...! वो डर गया! मैंने कहा, चलो चलो, देर क्यों करते हो। तीन बजने वाले हैं, अब दिन चढ़ आयेगा, बोला, रौशनी करो, रौशनी करो... मैंने कहा, ये रौशनी क्या हुआ... बोला, लाईट... लाईट... उसकी भींची हुई आवाज़ सुनकर मुझसे हंसी न रुकी।
उस्तुख़्वाँ हड्डी है और है पोस्त खालसग है कुत्ता और गीदड़ है शग़ाल
रूसी साहित्य का उर्दू में अनुवाद यहाँ पढ़े.
उर्दू के युवा लेखकों की टॉप 10 कहानी पुस्तकें यहाँ पढ़ें। इस पेज में युवा फिक्शन लेखकों का सबसे अच्छा संग्रह है, जिसे रेख़्ता ने ई-बुक पाठकों के लिए चुना है।
मसनवी आलोचना पर दस सर्वश्रेष्ठ पुस्तकें यहाँ पढ़ें। इस पेज पर मसनवी आलोचना की मानक पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिन्हें रेख़्ता ने ई-बुक पाठकों के लिए चुना है।
हड्डीہڈی
Bone, Lineage, Osseous, Race
Urdu Novel Ki Tareekh Aur Tanqeed
अली अब्बास हुसैनी
1987नॉवेल / उपन्यास
Baat Se Baat
वासिफ़ अली वासिफ़
शिक्षाप्रद
Kiran Kiran Sooraj
1986शिक्षाप्रद
Dil Dariya Samandar
लेख
Guftugu 15
सर सय्यद और अलीगढ़ तहरीक
ख़लीक़ अहमद निज़ामी
1982साहित्यिक आंदोलन
Novel Ka Fan
ई.एम. फार्सटर
1992आलोचना
हर्फ़ हर्फ़ हक़ीक़त
अनार कली
सय्यद इम्तियाज़ अली ताज
2011ऐतिहासिक
पीर मेहर अली शाह
करम हैदरी
1980अनुवाद
Al-Bayan
सय्यद आबिद अली आबिद
1989भाषा
Sau Lafzon Ki Kahani
मुबश्शिर अली ज़ैदी
2015कि़स्सा / दास्तान
Alipur Ka Ailee
मुमताज़ मुफ़्ती
1969नॉवेल / उपन्यास
Kashf-ul-Mahjoob
शैख़ अली हजूरी
1980सूफ़ीवाद / रहस्यवाद
Deewan-e-Chirkin
शैख़ बाक़र अली चिरकीन
2007दीवान
आप मानें न मानें मगर मैं क़समिया कहता हूँ कि इस बार उसने फिर झूट बोला। इस मर्तबा फिर उसके लहजे ने चुगु़ली खाई और मुझे उससे दिलचस्पी पैदा हो गई। इसलिए कि मैंने अपने दिल में क़सद कर लिया था कि उसे ज़रूर अपने पास बिठाऊंगा और अपना सिगरेट पिलवाऊँगा। मेरे ख़याल के मुताबिक़ इसमें मुश्किल की कोई बात ही न थी क्योंकि उसके दो जुमलों ही ने मुझे बता दिया था कि वो ...
अलियासफ़ बिंत-ए-अलख़िज़्र को याद कर के रोया मगर अचानक अलीउज़्र की जोरू याद आई जो अलीउज़्र को बंदर की जोन में देख कर रोई थी। हालाँकि उसकी हड़की बंध गई और बहते आँसूओं में उसके जमील नुक़ूश बिगड़ते चले गए। और हड़की की आवाज़ वहशी होती चली गई यहाँ तक कि उसकी जोन बदल गई। तब अलियासफ़ ने ख़याल किया। बिंत-ए-अलख़िज़्र जिनमें से थी उनमें मिल गई। और बेशक जो जिन में से है वो...
माई ताजो हर रात को एक घंटे तो ज़रूर सो लेती थी लेकिन लेकिन उस रात ग़ुस्से ने उसे इतना सा भी सोने की मोहलत न दी। पौ फटे जब वो खाट पर से उतर कर पानी पीने के लिए घड़े की तरफ़ जाने लगी तो दूसरे ही क़दम पर उसे चक्कर आ गया था और वो गिर पड़ी थी। गिरते हुए उसका सर खाट के पाए से टकरा गया था और वो बेहोश हो गई थी। ये बड़ा अ'जीब मंज़र था। रात के अँधेरे में सुब्ह-हौले हौले घुल रही थी। चिड़ियाँ एक दूसरे को रात के ख़्वाब सुनाने लगी थीं। बा’ज़ परिंदे पर हिलाए बग़ैर फ़िज़ा में यूँ तैर रहे थे जैसे मसनूई हैं और कूक ख़त्म हो गई तो गिर पड़ेंगे। हवा बहुत नर्म थी और उसमें हल्की-हल्की लतीफ़ सी ख़ुनकी थी। मस्जिद में वारिस अ'ली अज़ान दे रहा था।
बेदिलनई शायरी की बुनियाद डालने के लिए जिस तरह ये ज़रूरी है कि जहां तक मुम्किन हो सके उस के उम्दा नमूने पब्लिक में शाये किए जाएं, उसी तरह ये भी ज़रूरी है कि शे’र की हक़ीक़त और शायर बनने के लिए जो शर्तें दरकार हैं उनको किसी क़दर तफ़सील के साथ बयान किया जाये। (हाली- मुक़द्दमा-ए-शे’र-ओ-शायरी)
इसी इमारत से कुछ दूर ही इक काली दीवारलोगों का मेला ऐसा लगा था जैसे कोई त्यौहार
लेकिन चौधरी फ़तह दाद की ये सरज़निश ज़्यादातर मज़हबी नौइयत की थी वर्ना यह चौधरी ही तो था जो बरसों से मौलवी अबुल के घर में हर शाम को घी लगी एक रोटी और दाल शोरबे का एक सकोरा इस इल्तिज़ाम से भेजवाता था जैसे एक वक़्त नागा हो गया तो सूरज सवा नेज़े पर उतर आएगा और हद ये थी के जिस दिन रोज़-रोटी या दाल सालन भेजवाने में ज़रा सी देर हो जाती तो चौधरी फ़तह दाद बनफ़्स-ए-न...
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आआ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
मालिश अच्छी चीज़ है, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि बंबई के रहने वाले इसके इतने गिरवीदा क्यूँ हैं। दिन को और रात को, हर वक़्त उन्हें तेल मालिश की ज़रूरत महसूस होती। आप अगर चाहें तो रात के तीन बजे बड़ी आसानी से तेल मालिशिया बुला सकते हैं। यूँ भी सारी रात, आप ख़्वाह बंबई के किसी कोने में हों, ये आवाज़ आप यक़ीनन सुनते रहेंगे। “पी... पी... पी...”ये ‘पी’ चम्पी का मुख़फ़्फ़फ़ है।
Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi
Devoted to the preservation & promotion of Urdu
A Trilingual Treasure of Urdu Words
Online Treasure of Sufi and Sant Poetry
World of Hindi language and literature
The best way to learn Urdu online
Best of Urdu & Hindi Books