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ग़ज़ल
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए
अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तिरा
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
शिकवा
दश्त तो दश्त हैं दरिया भी न छोड़े हम ने
बहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिए घोड़े हम ने