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शेर
तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
हमारा फ़ख़्र था फ़क़्र और दानिश अपनी पूँजी थी
नसब-नामों के हम ने कितने ही परचम लपेटे हैं
जौन एलिया
नज़्म
नौ-जवान ख़ातून से
तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
मर्सिया
पर्चम का जहाँ अक्स गिरा साइक़ा चमका
पर्चम कहीं देखा न सुना इस चम-ओ-ख़म का
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
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ग़ज़ल
कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबाँ का 'जालिब'
चारों जानिब सन्नाटा है दीवाने याद आते हैं