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ग़ज़ल
ऐ बर्क़-ए-तजल्ली कौंध ज़रा क्या मुझ को भी मूसा समझा है
मैं तूर नहीं जो जल जाऊँ जो चाहे मुक़ाबिल आ जाए
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
बर्क़ अगर गर्मी-ए-रफ़्तार में अच्छी है 'अमीर'
गर्मी-ए-हुस्न में वो बर्क़-जमाल अच्छा है
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
मिरी तेज़-गामियों से नहीं बर्क़ को भी निस्बत
कहीं खो न जाए दुनिया मिरे साथ साथ चल कर
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
'बर्क़' उफ़्तादा वो हूँ सल्तनत-ए-आलम में
ताज-ए-सर इज्ज़ से नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
जान सी शय बिक जाती है एक नज़र के बदले में
आगे मर्ज़ी गाहक की इन दामों तो सस्ती है
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
बे-रोए मिस्ल-ए-अब्र न निकला ग़ुबार-ए-दिल
कहते थे उन को बर्क़-ए-तबस्सुम हँसी से हम