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नज़्म
जिस की नौमीदी से हो सोज़-ए-दरून-ए-काएनात
उस के हक़ में तक़्नतू अच्छा है या ला-तक़्नतू
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जिस के हंगामों में हो इबलीस का सोज़-ए-दरूँ
जिस की शाख़ें हों हमारी आबियारी से बुलंद
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग
उसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
उफ़ुक़ पे डूबते दिन की झपकती हैं आँखें
ख़मोश सोज़-ए-दरूँ से सुलग रही है ये शाम!
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
ख़ुद को बहलाना था आख़िर ख़ुद को बहलाता रहा
मैं ब-ईं सोज़-ए-दरूँ हँसता रहा गाता रहा
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
आवाज़ा-ए-हक़ जब लहरा कर भगती का तराना बनता है
ये रब्त-ए-बहम ये जज़्ब-ए-दरूँ ख़ुद एक ज़माना बनता है
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
मिरी तारीक फ़ितरत में भी इक तक़्दीस का शोअ'ला
किसी कैफ़-ए-दरूँ से फूट जाता है