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परेशान दिलों की शायरी

चाँद भी हैरान दरिया भी परेशानी में है

अक्स किस का है कि इतनी रौशनी पानी में है

फ़रहत एहसास

क्यूँ मेरी तरह रातों को रहता है परेशाँ

चाँद बता किस से तिरी आँख लड़ी है

साहिर लखनवी

अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं

रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे

परवीन शाकिर

देख लेते जो मिरे दिल की परेशानी को

आप बैठे हुए ज़ुल्फ़ें सँवारा करते

जलील मानिकपूरी

बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूँ है परेशाँ

जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा

शहरयार

हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुम से ज़ियादा

चाक किए हैं हम ने अज़ीज़ो चार गरेबाँ तुम से ज़ियादा

मजरूह सुल्तानपुरी

जाने किस ख़्वाब-ए-परेशाँ का है चक्कर सारा

बिखरा बिखरा हुआ रहता है मिरा घर सारा

कौसर मज़हरी

परेशाँ हो के दिल तर्क-ए-तअल्लुक़ पर है आमादा

मोहब्बत में ये सूरत भी रास आई तो क्या होगा

उनवान चिश्ती

तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो

तुम्हें ग़म की क़सम इस दिल की वीरानी मुझे दे दो

साहिर लुधियानवी

ख़ाक मैं उस की जुदाई में परेशान फिरूँ

जब कि ये मिलना बिछड़ना मिरी मर्ज़ी निकला

साक़ी फ़ारुक़ी

हम तेरे पास के परेशान हैं बहुत

हम तुझ से दूर रहने को तय्यार भी नहीं

बशीर फ़ारूक़ी

छलके हुए थे जाम परेशाँ थी ज़ुल्फ़-ए-यार

कुछ ऐसे हादसात से घबरा के पी गया

साग़र सिद्दीक़ी

अक़्ल गुम है दिल परेशाँ है नज़र बेताब है

जुस्तुजू से भी नहीं मिलता सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी

फ़ैज़ लुधियानवी

ज़ेहन पर बोझ रहा, दिल भी परेशान हुआ

इन बड़े लोगों से मिल कर बड़ा नुक़सान हुआ

तारिक़ क़मर

सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने

जब बाग़ में बातें तिरी ज़ुल्फ़ों की चलाईं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

ज़िंदगी में पहले इतनी तो परेशानी थी

तंग-दामानी थी लेकिन चाक-दामानी थी

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

गुफ़्तुगू कर के परेशाँ हूँ कि लहजे में तिरे

वो खुला-पन है कि दीवार हुआ जाता है

शारिक़ कैफ़ी

फिरते हैं कई क़ैस से हैरान परेशान

इस इश्क़ की सरकार में बहबूद नहीं है

जोशिश अज़ीमाबादी

इस चश्म-ए-सियह-मस्त पे गेसू हैं परेशाँ

मय-ख़ाने पे घनघोर घटा खेल रही है

नज़र हैदराबादी

सच बता इश्क़ मुझे सख़्त परेशाँ हूँ मैं

क्यूँ ख़फ़ा होता नहीं दोस्त ख़ता पर मेरी

मोहम्मद तन्वीरुज़्ज़मां

अब मैं हूँ और ख़्वाब-ए-परेशाँ है मेरे साथ

कितना पड़ेगा और अभी जागना मुझे

बर्क़ी आज़मी

दिल है परेशाँ उन की ख़ातिर

पल भर को आराम नहीं है

अनवर ताबाँ

दिल ख़ुश हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर

पछताए हम इस शाम-ए-ग़रीबाँ से निकल कर

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ

इक सिलसिला बंधा उस ज़ुल्फ़-ए-दोता से देखा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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