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प्रेमचंद की कहानियाँ
पूस की रात
(1) हल्कू ने आ कर अपनी बीवी से कहा, “शहना आया है लाओ जो रुपये रखे हैं उसे दे दो। किसी तरह गर्दन तो छूटे।” मुन्नी बहू झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिर कर बोली, “तीन ही तो रुपये हैं, दे दूँ, तो कम्बल कहाँ से आएगा। माघ-पूस की रात खेत में कैसे कटेगी। उस से
कफ़न
यह एक बहुस्तरीय कहानी है, जिसमें घीसू और माधव की बेबसी, अमानवीयता और निकम्मेपन के बहाने सामन्ती औपनिवेशिक गठजोड़ के दौर की सामाजिक आर्थिक संरचना और उसके अमानवीय/नृशंस रूप का पता मिलता है। कहानी में कफ़न एक ऐसे प्रतीक की तरह उभरता है जो कर्मकाण्डवादी व्यवस्था और सामन्ती औपनिवेशिक गठजोड़ के लिए समाज को मानसिक रूप से तैयार करता है।
बड़े घर की बेटी
(1) बेनी माधव सिंह मौज़ा गौरीपुर के ज़मींदार नंबरदार थे। उनके बुज़ुर्ग किसी ज़माने में बड़े साहिब-ए-सर्वत थे। पुख़्ता तालाब और मंदिर उन्हीं की यादगार थी। कहते हैं इस दरवाज़े पर पहले हाथी झूमता था। उस हाथी का मौजूदा नेम-उल-बदल एक बूढ़ी भैंस थी जिसके बदन पर
बूढ़ी काकी
‘बूढ़ी काकी’ मानवीय भावना से ओत-प्रोत की कहानी है। इसमें उस समस्या को उठाया गया है जिसमें परिवार के बाक़ी लोग घर के बुज़ुर्गों से धन-दौलत लेने के लिए उनकी उपेक्षा करने लगते हैं। इतना ही नहीं उनका तिरस्कार किया जाता है। उनका अपमान किया जाता है और उन्हें खाना भी नहीं दिया जाता है। इसमें भारतीय मध्यवर्गीय परिवारों में होने वाली इस व्यवहार का वीभत्स चित्र उकेरा गया है।
ईदगाह
ईद जैसे महत्वपूर्ण त्योहार को आधार बनाकर ग्रामीण मुस्लिम जीवन का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया गया है। हामिद का चरित्र हमें बताता है कि अभाव उम्र से पहले बच्चों में कैसे बड़ों जैसी समझदारी पैदा कर देता है। मेले में हामिद अपनी हर इच्छा पर संयम रखने में विजयी होता है। और अपनी दादी अमीना के लिए एक चिमटा ख़रीद लेता है ताकि रोटी पकाते वक़्त उसके हाथ न जलें।
सवा सेर गेहूँ
शहर के साथ ही गाँवों में हावी साहूकारी व्यवस्था और किसानों के दर्द को उकेरती कहानी है ‘सवा सेर गेहूँ’। प्रेमचंद ने इस कहानी में साहूकारी व्यवस्था के बोझ तले लगातार दबाए जा रहे और पीड़ित किए जा रहे किसानों के दर्द को उकेरा और सवाल उठाया कि आख़िर कब तक किसान साहूकारों द्वारा कुचला जाता रहेगा।
दो बैल
यह कहानी हीरा और मोती नाम के दो बैलों के गिर्द घूमती है। दोनों बैल अपने मालिक से अलग होने के बाद बहुत सारी समस्याओं का सामना करते हैं, लेकिन कभी एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते और आख़िरकार वापिस अपने पुराने मालिक के पास ही चले आते हैं।
दुनिया का सबसे अनमोल रतन
‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न’ प्रेमचंद की पहली कहानी है। यह उस कहानी संग्रह का हिस्सा है जिसे अंग्रेज़ सरकार ने बैन कर दिया था। इसमें दिलफ़रेब दिलफ़िगार से कहती है कि ‘अगर तू मेरा सच्चा प्रेमी है, तो जा दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ लेकर मेरे दरबार में आ।’ दिलफ़रेब दो बार नाकाम हो कर लौटता है मगर तीसरी बार जब वह आता है तो वह रत्न खोजने में कामयाब हो जाता है जिसके सामने दुनिया की हर चीज़ फीकी है।
नयी बीवी
पहली बीवी की मौत के बाद लाला डंगामल जब दूसरी शादी कर लेते हैं तो उन्हें लगता है कि वह फिर से जवान हो गए हैं। नई-नवेली दुल्हन को बहलाने के लिए वह हर तरह के प्रपंच करते हैं। मगर नई दुल्हन उनसे कुछ खिंची-खिंची सी रहती है। उन्हें लगता है कि उनसे कोई ग़लती हो गई है। मगर तभी घर के महाराज की जगह एक सोलह साला छोकरा नौकरी पर आता है और फिर सब कुछ बदल जाता है।
हज-ए-अक्बर
1 मुंशी साबिर हुसैन की आमदनी कम थी और ख़र्च ज़्यादा। अपने बच्चे के लिए दाया रखना गवारा नहीं कर सकते थे। लेकिन एक तो बच्चे की सेहत की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबर वालों से हेटे बन कर रहने की ज़िल्लत इस ख़र्च को बर्दाश्त करने पर मजबूर करती थी। बच्चा दाया को
नमक का दारोग़ा
यह कहानी समाज की यथार्थ स्थिति का उल्लेख करती है। मुंशी वंशीधर एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हैं जो समाज में ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की मिसाल क़ायम करते हैं। यह कहानी अपने साथ कई उद्देश्यों का पूरी करती है। इसके साथ ही इस कहावत को भी चरितार्थ करती है कि ईमानदारी की जड़ें पाताल में होती हैं।
दो बहनें
दो बहनें दो साल बाद एक तीसरे अज़ीज़ के घर मिलीं और ख़ूब रो धोकर ख़ामोश हुईं तो बड़ी बहन रूप कुमारी ने देखा कि छोटी बहन राम दुलारी सर से पांव तक गहनों से लदी हुई है। कुछ उसका रंग खिल गया। मिज़ाज में कुछ तमकनत आगई है और बातचीत करने में कुछ ज़्यादा मुश्ताक़ हो
शतरंज की बाज़ी
कहानी 1856 के अवध नवाब वाजिद अली शाह के दो अमीरों के इर्द-गिर्द घूमती है। ये दोनों खिलाड़ी शतरंज खेलने में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें अपने शासन तथा परिवार की भी फ़िक्र नहीं रहती। इसी की पृष्ठभूमि में अंग्रेज़ों की सेना अवध पर चढ़ाई कर देती है।
दूध की क़ीमत
जाति प्रथा के कारण उपजी अमान्यता को रेखांकित करने वाली ढे़र सारी कहानियाँ प्रेमचंद जी ने लिखी हैं। ‘दूध का दाम’ नामक कहानी भी इन्हीं कहानियों में से एक है। इस कहानी में लेखक ने जाति प्रथा को रेखांकित किया है।
राह-ए-नजात
झींगुर महतो को अपने खेतों पर बड़ा नाज़ था। एक दिन बुद्धू गड़रिया अपनी भेड़ों को उधर से लेकर गुज़रने लगा तो महतो को इतना ग़ुस्सा आया कि उसने हाथ छोड़ दिया और बुद्धू की भेड़ों पर ताबड़-तोड़ लाठियाँ बरसा दीं। बदले में एक रात बुद्धू ने महतों के खेतों में आग लगा दी। दोनों के बीच पनपी यह रंजिश इतनी लंबी चली कि एक दिन वह भी आया जब दो वक़्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ा।
पंचायत
‘पंचायत’ कहानी में यह बताया है कि अनुकूल परिस्थितियों के आने पर मनुष्य का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह अपनी कुवृत्तियों का त्याग करके सद्वृत्तियों की ओर अग्रसर होता है। इस कहानी में प्रेमचंद्र ने आशा और विश्वास का भी सन्देश दिया है। यदि मनुष्य में बुराई आ गयी है, यदि ग्रामीण जीवन दूषित हो गया है तो निराश होने का कोई कारण नहीं है, प्रयास करने पर ग्रामीण जीवन को फिर सुखी बनाया जा सकता है और हृदय-परिवर्तन के द्वारा मनुष्य के समस्त दोषों को दूर करना संभव है।
ज़ेवर का डिब्बा
ठाकुर साहब के बेटे वीरेंद्र को तीस रूपये महीना ट्यूशन के साथ चंद्र प्रकाश को रहने के लिए मुफ़्त का मकान भी मिल गया था। ठाकुर साहब उस पर काफ़ी भरोसा करते थे। घर में बेटे की शादी की बात चली तो सारी ज़िम्मेदारी चंद्र प्रकाश को ही दी गई। एक रोज़ हवेली से गहनों का डिब्बा चोरी हो गया। इसके बाद चंद्र प्रकाश ने वह मकान छोड़ दिया। मगर समस्या तो तब शुरू हुई जब उसकी बीवी को पता चला कि ज़ेवर का डिब्बा किसी और ने नहीं चंद्र प्रकाश ने ही चुराया है।
शिकवा शिकायत
यह आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखी गई चरित्र प्रधान कहानी है। शादी के बाद एक लंबा अरसा गुज़र जाने पर भी उसे हर वक़्त अपने शौहर से शिकायतें है। उसकी कोई भी बात, काम, सलीक़ा या फिर तरीक़ा पसंद नहीं आता। शिकवे इस क़दर हैं कि सारी ज़िंदगी बस जैसे-तैसे गुज़र गई है। मगर इन शिकायतों में भी एक ऐसा रस है जिससे शौहर के बिना एक लम्हें के लिए दिल भी नहीं लगता।
अमावस की रात
किसी ज़माने में उसके पूर्वज बहुत अमीर हुआ करते थे। मगर आज उसकी ऐसी हालत है कि अमावस्य की रात है और उसका घर अंधेरे में डूबा है। सारा शहर रौशनी से जगमग है और वह मृत्यु-शैय्या पर लेटी अपनी पत्नि के पास बैठा है। उसके पास इतने भी पैसे नहीं कि वह वैद्य जी को बुला सके। तभी एक पुराना क़र्ज़दार उसे रुपया लौटाने आता है मगर तब तक उसकी पत्नी मर चुकी होती है।
बंद दरवाज़ा
आफ़ताब उफ़ुक़ की गोद से निकला। बच्चा पालने से वही मलाहत, वही सुर्ख़ी, वही ख़ुमार, वही ज़िया। मैं बरामदे में बैठा था। बच्चे ने दरवाज़े से झाँका, मैंने मुस्कराकर पुकारा। वो मेरी गोद में आकर बैठ गया। उसकी शरारतें शुरू हो गईं। कभी क़लम पर हाथ बढ़ाया। कभी
रौशनी
आई.सी.एस. का इम्तिहान पास कर के वह भारत लौटता है। उसे महसूस होता है कि मग़्रिब के मुक़ाबले भारत बहुत बद-हाल है। एक रोज़ सफ़र के दौरान वह भयानक तूफ़ान में फँस जाता है। उसे एक ग़रीब औरत मिलती है। पति की मौत के बाद अकेले ही अपने बच्चों को पाल रही है। बिना किसी की मदद के। वह उस औरत की ख़ुद्दारी को देखता है और उसके सभी विचार बदल जाते हैं।
घास वाली
खेतों की मेड़ पर जब वह मुलिया घास वाली से टकराया तो उसकी ख़ूबसूरती देखकर उसके तो होश ही उड़ गए। उसे लगा कि वह मुलिया के बिना रह नहीं सकता। मगर मुलिया एक पतिव्रता औरत है। इसलिए जब उसने उसका हाथ पकड़ने की कोशिश की तो मुलिया ने उसके सामने समाज की सच्चाई का वह चित्र प्रस्तुत किया जिसे सुनकर वह उसके सामने गिड़गिड़ाने और माफ़ी माँगने लगा।
मंत्र
शाम का वक़्त था। डाक्टर चड्ढा गोल्फ़ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर दरवाज़ा के सामने खड़ी थी कि दो कहार डोली उठाए आते दिखाई दिए। अक़ब में एक बूढ़ा लाठी टेकता आ रहा था। डोली मतब के सामने आकर रुक गई। बूढ़े ने धीरे धीरे आकर दरवाज़े पर पड़ी हुई चिक में से
नजात
‘नजात’ कहानी हिंदी में 'सद्गति' के नाम से प्रकाशित हुई थी। एक ज़रूरतमंद, कई दिनों का भूखा-प्यासा ग़रीब चमार किसी काम से ठाकुर के यहाँ आता है। ठाकुर उसे लकड़ी काटने के काम पर लगा देता है। सख़्त गर्मी से बेहाल वह लकड़ी काटता है और अपनी थकान मिटाने के लिए बीच-बीच में चिलम पीता रहता है। लेकिन काम ख़त्म होने से पहले ही वह इतना थक जाता है कि मर जाता है। उस मरे हुए चमार की लाश से ठाकुर जिस तरह जान छुड़ाता है वह बहुत मार्मिक है।
बेटी का धन
बेतवा नदी दो ऊंचे करारों के बीच में इस तरह मुँह छुपाए हुए थी जैसे बा’ज़ दिलों में इरादा-ए-कमज़ोर और तनपरवरी के बीच में हिम्मत की मद्धम लहरें छुपी रहती हैं। एक कर्रार पर एक छोटा सा गाँव आबाद है जिसके शानदार खंडरों ने उसे एक ख़ास शौहरत दे रखी है। क़ौमी कारनामों
क़ुर्बानी
इन्सान की हैसियत का सबसे ज़्यादा असर ग़ालिबन उस के नाम पर पड़ता है, मंगरू ठाकुर जब से कांस्टेबल हो गए हैं,उनका नाम मंगल सिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने की जुरअत नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से थानादार साहिब से दोस्ती की है और गांव का मुखिया
पंसारी का कुँआं
पंसारी का कुँआ एक सामाजिक मुद्दे के गिर्द घुमती कहानी है। कहानी में बूढ़ी गोमती काकी एक कुँआ ख़ुदवाने के लिए सारी ज़िंदगी पाई-पाई जोड़ती है और चौधरी विनायक को वसीयत कर के मर जाती है। चौधरी विनायक बूढ़ी गोमती काकी की वसीयत को पूरा करता है या नहीं। यही इस कहानी में बताया गया है।
आत्मा राम
महादेव के तीनों पुत्र बड़े हुए तो उसे लगा कि अब वह आराम करेगा। मगर बाप के होते हुए काम करना बेटे ने ख़ुद पर हराम कर लिया। महादेव का एक तोता था, जो उसे सबसे ज़्यादा प्यारा था। एक दिन बच्चों ने तोता उड़ा दिया। उसे तोते को खोजने के लिए संघर्ष करने पड़े। मगर इस संघर्ष में उसके हाथ एक ऐसा गुप्त धन लग गया जिसने उसकी दुनिया ही बदल दी।
अंधेर
नागपंचमी आई, साठे के ज़िंदा-दिल नौजवानों ने ख़ुश रंग़ जांघिये बनवाए, अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदाएँ बुलंद हुईं क़ुर्ब-ओ-जवार के ज़ोर-आज़मा इखट्टे हुए और अखाड़े पर तंबोलियों ने अपनी दुकानें सजाईं क्योंकी आज ज़ोर-आज़माई और दोस्ताना मुक़ाबले का दिन है औरतों
बाँका ज़मीनदार
एक क़त्ल का मुक़दमा जीतने की एवज़ में वकील ठाकुर प्रद्मुन सिंह उस मौज़े को नज़राने के तौर पर पा जाते हैं जिसे वह बहुत अर्से से पसंद करते आ रहे थे। मौज़ा मिलने पर वह रिआया के साथ इतनी सख़्ती करते हैं कि गाँव कई बार उजड़ता है और बसता है। फिर एक ऐसी क़ौम उस गाँव में आ कर बसती है जो ठाकुर साहब को लोहे के चने चबवा देती है।
सती
शक घुन की तरह है, जो हर रिश्ते को खा जाता है। मुलिया जितनी ख़ूबसूरत है उसका पति उतना ही बदसूरत। फिर भी वह उससे प्यार करती है। एक रोज़ उसका पति उसे अपने चचेरे भाई के साथ देख लेता है और शक की बिना पर घुल-घुल कर मर जाता है। मगर यह तो बाद में ही पता चलता है कि मुलिया के दिल में अपने देवर के लिए कुछ नहीं था।
सिर्फ़ एक आवाज़
सुब्ह का वक़्त था। ठाकुर दर्शन सिंह के घर में एक हंगामा बरपा था। आज रात को चन्द्र गरहन होने वाला था। ठाकुर साहब अपनी बूढ़ी ठकुराइन के साथ गंगा जी जाते थे। इसलिए सारा घर उनकी पुरशोर तैयारी में मसरूफ़ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुरता टांक रही थी। दूसरी बहू
बेग़रज़ मोहसिन
सावन का महीना था, रेवती रानी ने पांव में मेहंदी रचाई, मांग चोटी सँवारी और तब अपनी बूढ़ी सास से जाकर बोली, "अम्मां जी आज मैं मेला देखने जाऊँगी।" रेवती पण्डित चिंता मन की बीवी थी। पंडित जी ने सरस्वती की पूजा में ज़्यादा नफ़ा न देखकर लक्ष्मी देवी की मुजावरी
आह-ए-बेकस
अपनी ईमानदारी, मेहनत और क़ानून-दानी के लिए मशहूर मुंशी सेवक राम के पास लोग अपनी अमानत रखा करते थे। मगर हक़ीक़त से पर्दा तब उठना शुरू हुआ जब बेवा मूंगा ब्राह्मनी ने मुंशी जी के पास कुछ रुपये अमानत रखे, जिन्हें बाद में मुंशी जी ने देने से मना कर दिया। इससे मूंगा पागल हो गई और एक आह के साथ उसने मुंशी के दरवाजे़ पर दम तोड़ दिया। मूंगा की इस आह का ऐसा असर हुआ कि मुंशी का पूरा ख़ानदान ही तबाह हो गया।
पछतावा
पंडित दुर्गा नाथ जब कॉलेज से निकले तो कस्ब-ए-मआश की फ़िक्र दामनगीर हुई। रहम दिल और बा उसूल आदमी थे। इरादा था कि काम ऐसा करना चाहिए जिसमें अपनी गुज़रान भी हो और दूसरों के साथ हमदर्दी और दिलसोज़ी का भी मौक़ा मिले। सोचने लगे अगर किसी दफ़्तर में क्लर्क बन जाऊँ
रियासत का दीवान
आप तभी तक इंसान हैं जब तक आपका ज़मीर ज़िंदा है। महतो साहब जब तक इस अमल पर जमे रहे तब तक तो सब ठीक था। मगर जब एक रोज़ अपने ज़मीर को मार कर वह रियासत के हुए हैं तब से सब गड़बड़ हो गया है। राजा उसे ज़ुल्म करने पर उकसाता है और बेटा ग़रीबों की हिमायत में खड़ा है। इस रस्सा-कशी में एक रोज़ ऐसा भी आया कि वह तन्हा खड़े रह गए।
समर यात्रा
आज सुबह ही से गाओं में हलचल मची हुई थी। कच्ची झोंपड़ियाँ हँसती हुई मालूम होती थीं। आज सत्याग्रह करने वालों का जत्था गाओं में आएगा। कोदई चौधरी के दरवाज़े पर शामियाना लगा हुआ है। आटा, घी, तरकारी, दूध और दही जमा किया जा रहा है। सब के चेहरे पर उमंग है,
अक्सीर
बेवा होजाने के बाद बूटी के मिज़ाज में कुछ तल्ख़ी आगई थी जब ख़ानादारी की परेशानियों से बहुत जी जलता तो अपने जन्नत नसीब को सलवातें सुनाती, "आप तो सिधार गए मेरे लिए ये सारा जंजाल छोड़ गए।" जब इतनी जल्दी जाना था तो शादी न जाने किस लिए की थी, "घर में भूनी
ख़ून-ए-सफ़ेद
चैत का महीना था, लेकिन वो खलियान जहाँ अनाज के सुनहरे अंबार लगते थे, जाँ बलब मवेशियों के आरामगाह बने हुए थे। जिन घरों से फाग और बसंत की अलापें सुनाई देती थीं वहाँ आज तक़दीर का रोना था। सारा चौमासा गुज़र गया पानी की एक बूँद न गिरी। जेठ में एक बार मुसलाधार
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बाल-साहित्य1947
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