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हसन अब्बास रज़ा के शेर

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बच्चों के साथ आज उसे देखा तो दुख हुआ

उन में से कोई एक भी माँ पर नहीं गया

हमारी जेब में ख़्वाबों की रेज़गारी है

सो लेन-देन हमारा दुकाँ से बाहर है

सवाल ये नहीं मुझ से है क्यूँ गुरेज़ाँ वो

सवाल ये है कि क्यूँ जिस्म जाँ से बाहर है

मकीं यहीं का है लेकिन मकाँ से बाहर है

अभी वो शख़्स मिरी दास्ताँ से बाहर है

किस को थी ख़बर इस में तड़ख़ जाएगा दिल भी

हम ख़ुश थे बहुत सेहन में दीवार उठा कर

मैं तर्क-ए-तअल्लुक़ पे भी आमादा हूँ लेकिन

तू भी तो मिरा क़र्ज़-ए-ग़म-ए-हिज्र अदा कर

उस का फ़िराक़ इतना बड़ा सानेहा था

लेकिन ये दुख पहाड़ बराबर लगा हमें

मैं फिर इक ख़त तिरे आँगन गिराना चाहता हूँ

मुझे फिर से तिरा रंग-ए-बुरीदा देखना है

इरादा था कि अब के रंग-ए-दुनिया देखना है

ख़बर क्या थी कि अपना ही तमाशा देखना है

धड़कती क़ुर्बतों के ख़्वाब से जागे तो जाना

ज़रा से वस्ल ने कितना अकेला कर दिया है

तअल्लुक़ तोड़ने में पहल मुश्किल मरहला था

चलो हम ने तुम्हारा बोझ हल्का कर दिया है

मोहब्बतें तो फ़क़त इंतिहाएँ माँगती हैं

मोहब्बतों में भला ए'तिदाल क्या करना

ये कार-ए-इश्क़ तो बच्चों का खेल ठहरा है

सो कार-ए-इश्क़ में कोई कमाल क्या करना

जुदाई की रुतों में सूरतें धुँदलाने लगती हैं

सो ऐसे मौसमों में आइना देखा नहीं करते

हमेशा इक मसाफ़त घूमती रहती है पाँव में

सफ़र के ब'अद भी कुछ लोग घर पहुँचा नहीं करते

क्या शख़्स था उड़ाता रहा उम्र भर मुझे

लेकिन हवा से हाथ मिलाने नहीं दिया

शाम-ए-विदाअ थी मगर उस रंग-बाज़ ने

पाँव पे होंट रख दिए जाने नहीं दिया

आँखों से ख़्वाब दिल से तमन्ना तमाम-शुद

तुम क्या गए कि शौक़-ए-नज़ारा तमाम-शुद

तुझ से बिछड़ के सम्त-ए-सफ़र भूलने लगे

फिर यूँ हुआ हम अपना ही घर भूलने लगे

सिवा तेरे हर इक शय को हटा देना है मंज़र से

और इस के ब'अद ख़ुद को बे-सर-ओ-सामान करना है

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