aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
ऐ मिरे घर की फ़ज़ाओं से गुरेज़ाँ महताब
अपने घर के दर-ओ-दीवार को कैसे छोड़ूँ
शाम ढलने से फ़क़त शाम नहीं ढलती है
उम्र ढल जाती है जल्दी पलट आना मिरे दोस्त
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आए
ऐ 'मुसहफ़ी' तुर्बत का मिरी नाम न लेना
गर पूछे तो कहियो कि है दरगाह किसी की
एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती
दिल के बुझने से दुनिया तारीक नहीं होती
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