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Quotes of Mohammad Hasan Askari
फ़न-बराए-फ़न हर क़िस्म की आसानियों, तर्ग़ीबों और मफ़ादों से महफ़ूज़ रह कर इंसानी ज़िंदगी की बुनियादी हक़ीक़तों को ढूँढने की ख़्वाहिश का नाम है।
फ़सादाद के मुतअ'ल्लिक़ जितना भी लिखा गया है उसमें अगर कोई चीज़ इंसानी दस्तावेज़ कहलाने की मुस्तहिक़ है तो मंटो के अफ़साने हैं।
इंक़लाब का असली मफ़हूम ख़ूँ-रेज़ी और तख़रीब नहीं, न महज़ किसी-न-किसी तरह की तब्दीली को दर-अस्ल इंक़लाब कहते हैं। यह तो इंक़लाब के सबसे सस्ते मानी हैं। असली इंक़लाब तो बग़ैर ख़ून बहाए भी हो सकता है।
हम कितने और किस क़िस्म के अल्फ़ाज़ पर क़ाबू हासिल कर सकते हैं, इसका इंहिसार इस बात पर है कि हमें ज़िंदगी से रब्त कितना है।
मुहावरे सिर्फ़ ख़ूबसूरत फ़िक़रे नहीं, ये तो इज्तिमाई तजरबे के टुकड़े हैं, जिनमें समाज की पूरी शख़्सियत बसती है।
मुझे हक़ीक़त की निस्बत अफ़सानों से ज़्यादा शग़फ़ है। क्योंकि जब तक हक़ीक़त पर इंसानों के तख़य्युल का अमल नहीं होता, वो मुर्दा रहती है।
आख़िर लज़्ज़त से इतनी घबराहट क्यों? जब हम किसी पेड़ को, किसी किरदार के चेहरे को, उसके कपड़ों को, किसी सियासी जलसे को मज़े ले-ले कर बयान कर सकते हैं, तो फिर औरत के जिस्म को या किसी जिंसी फे़ल को लज़्ज़त के साथ बयान करने में क्या बुनियादी नक़्स है? लज़्ज़त बजा-ए-ख़ुद किसी फ़न-पारे को मर्दूद नहीं बना सकती, बल्कि उसके मक़बूल या मर्दूद होने का दार-ओ-मदार है लज़्ज़त की क़िस्म।
इस्तिआरे से अलग ‘अस्ल ज़बान’ कोई चीज़ नहीं, क्योंकि ज़बान ख़ुद एक इस्तिआरा है।
जिस कायनात में सिर्फ़ इंसान ही इंसान रह जाए वो सिर्फ़ बे-रंग ही नहीं, इन्हितात-पज़ीर कायनात होगी।
मैं इंसान-परस्ती से इसलिए डरता हूँ कि इसके बाद आदमी के ज़हन में लतीफ़, वसीअ' और गहरे तजरबात की सलाहियतें बाक़ी नहीं रहती और आदमी कई ए'तिबार से ठस बन के रह जाता है।
सबसे नफ़ीस पहचान फ़ुहश और आर्ट की यही है कि फ़ुहश से दोबारा वही लुत्फ़ नहीं ले सकते जो पहली मर्तबा हासिल किया था। आर्ट हर मर्तबा नया लुत्फ़ है।
जब मन-चलापन अपनी ख़ुद-ए'तिमादी में हद से गुज़रने लगता है तो मुहब्बत अच्छी ख़ासी पहलवानी बन जाती है।
मार्क्सियत सरमाया-दारी के इर्तिक़ा की तारीख़ तो बयान कर सकती है, लेकिन यह नहीं बता सकती कि आख़िर सरमाया-दार इतनी दौलत क्यों हासिल करना चाहता है। इसका जवाब सिर्फ़ नफ़्सियात दे सकती है। लिहाज़ा बुनियादी ए'तिबार से मआशी मसअला नफ़सियाती और अख़लाक़ी मसला बन जाता है।
माहौल इतनी तेज़ी से बदल रहा है कि किसी चीज़ को ग़ौर से देखने की मोहलत ही नहीं मिलती।
जिस तहज़ीब में इंसान की पूजा हो वहाँ बड़ी शख़्सियतें पैदा ही नहीं हो सकतीं।
फ़नकार हर उस चीज़ से दूर भागता है जिसके मुतअ'ल्लिक़ कहा जा सके कि यह अच्छी है या बुरी है। झूठी है या सच्ची।
असली इंक़लाब सिर्फ़ सियासी या मआशी नहीं होता बल्कि अक़दार का इंक़लाब होता है। इंक़लाब में सिर्फ़ समाज का ज़ाहिरी ढाँचा नहीं बदलता, बल्कि दिल-ओ-दिमाग़ सब बदल जाता है। इस से नया इंसान पैदा होता है।
उर्दू के अदीबों की कमज़ोरी यह है कि उन्हें अपनी ज़बान ही नहीं आती। हमारे अदीबों ने अवाम को बोलते हुए नहीं सुना, उनके अफ़सानों में ज़िंदा ज़बान और ज़िंदा इंसानों का लब-ओ-लहजा नहीं मिलता।
अगर अदब में फ़ुहश मौजूद है, तो उसे हव्वा बनाने की कोई माक़ूल वजह नहीं। अगर आप लोगों को फ़ुहश की मुज़र्रतों से बचाना चाहते हैं, तो उन्हें यह समझने का मौक़ा दीजिए कि क्या चीज़ आर्ट है और क्या नहीं है। जो शख़्स आर्ट के मज़े से वाक़िफ़ हो जाएगा उसके लिए फ़ुहश अपने-आप फुसफुसा हो कर रह जाएगा।
इंक़लाब के मानी हक़ीक़त में यह हैं कि निज़ाम-ए-ज़िंदगी, जो नाकारा हो चुका है बदल जाए और उसकी जगह नया निज़ाम आए, जो नए हालात से मुताबिक़त रखता हो।
अदीब को यह मालूम होना चाहिए कि उसे किस वक़्त, किस हैसियत से अमल करना है। शहरी की हैसियत से या अदीब की हैसियत से।
हुक्मरान सिर्फ़ बादशाह या अमीर नहीं हैं, बल्कि जम्हूरी रहनुमा, समाजी मुसल्लिहीन, इज्तिमाई ज़िंदगी के मुतअ'ल्लिक़ सोचने वाले फ़लसफ़ी, इन सब को मैं हुक्मरानों में शामिल करता हूँ। यानी वो तमाम लोग, जो चाहते हैं कि आदमी एक ख़ास तरीक़े से ज़िंदगी बसर करें।
फ़नकार के लिए तमाम अख़लाक़ी तअ'ल्लुक़ात मुर्दा हो चुके हैं। हुस्न वह आख़िरी तिनका है जिसका सहारा लिए बग़ैर उसे चारा नहीं।
जो शख़्स या जो जमाअत इस्तिआरे से डरती है, वो दर-अस्ल ज़िंदगी के मुज़ाहिरे और ज़िंदगी की कुव्वतों से डरती है। जीने से घबराती है।
ग़ैर-मामूली हालात में ग़ैर-मामूली हरकतें हमें इंसान के मुतअ'ल्लिक़ ज़ियादा से ज़ियादा यह बता सकती हैं कि हालात इंसान को जानवर की सत्ह पर ले आते हैं।
अगर अदीबों के पास लफ़्ज़ कम रह जाएँ तो पूरे मुआ'शरे को घबरा जाना चाहिए। यह एक बहुत बड़े समाजी ख़लल की अलामत है। अदब में लफ़्ज़ों का तोड़ा हो जाएगा, तो इसके साफ़ मा'नी यह हैं कि मुआ'शरे को ज़िंदगी से वसीअ' दिलचस्पी नहीं रही या तजरबात को क़बूल करने की हिम्मत नहीं पड़ती।
ज़िंदगी की उकता देने वाली बे-रंगी को क़बूल किए बग़ैर नॉवेल नहीं लिखा जा सकता। नॉवेल-नवीस में ज़िंदगी से मुहब्बत के अलावा ज़िंदगी की यकसानी को सहारने की ताक़त भी होनी चाहिए।
जब अदब मरने लगे तो अदीबों को ही नहीं, बल्कि सारे मुआ'शरे को दुआ-ए-क़ुनूत पढ़नी चाहिए।
ला-महदूद मसर्रतों पर इंसान का हक़ तस्लीम कर लेने का आख़िरी नतीजा यह हुआ कि असली ज़िंदगी ही मोअ'त्तल हो कर रह गई है।
मुजस्समों और तस्वीरों में जिन्सी आ'ज़ा उस वक़्त छुपाए जाने शुरू'अ होते हैं, जब ज़माना इन्हितात-पज़ीर होता है। जब रुहानी जज़्बे की शिद्दत बाक़ी नहीं रहती और ख़यालात भटकने लगते हैं। जब फ़नकार डरता है कि वो अपने नाज़रीन की तवज्जोह असली चीज़ पर मर्कूज़ नहीं रख सकेगा।
अदब बे-नफ़्सेही एक नए तवाज़ुन की तलाश है और इंक़लाब के तसव्वुर में तवाज़ुन की जगह ही नहीं रखी गई। इंक़लाब के तसव्वुर से मोअस्सिर अदब तो पैदा हो सकता है, मगर बड़ा अदब पैदा नहीं हो सकता।
कुछ शायरों पर सबसे ज़्यादा लानत-मलामत इसलिए की जाती है कि उन्होंने समाजी मसाइल को काबिल-ए-ए'तिना नहीं समझा। इसकी हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी है कि उन्होंने किसी ख़ास जमाअत की सियासत को काबिल-ए- ए'तिना नहीं समझा।
रिवायत का सही तसव्वुर न होने की वजह से तख़लीक़ी फ़नकारों को, जो परेशानी हो रही है वो इबरत-ख़ेज़ है।
जो लोग किसी-न-किसी शक्ल में फ़न की बरतरी के क़ाइल थे, उनकी बुनियादी ख़्वाहिश ज़िंदगी से किनारा-कशी नहीं थी।
वजूद के मुतज़ाद उसूलों और क़ुव्वतों को यकजा करके उनकी नौइयत बदल देना सिर्फ़ इस्तिआरे का काम है।
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