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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अंजली सहर

ग़ज़ल 3

 

अशआर 7

शर्म से डूब मरने का है मक़ाम

तेरे होते ख़ुशी उदास हैं हम

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हम से कटता नहीं ग़मों का पहाड़

लोग कहते हैं ज़िंदगी कम है

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अब तो ये भी समझ से बाहर है

किस का दुख है जो वाक़'ई दुख है

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है इन दियों का मुक़द्दर भी बेटियों जैसा

कहाँ बनाए गए और हुए कहाँ रौशन

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कोई उम्मीद जब नहीं होती

होती है एक ख़ुद-कुशी उम्मीद

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