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Ghulam Rabbani Taban's Photo'

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

1914 - 1993 | दिल्ली, भारत

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ के शेर

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ये चार दिन की रिफ़ाक़त भी कम नहीं दोस्त

तमाम उम्र भला कौन साथ देता है

शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है

ये आज़माइश-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की मंज़िल है

रह-ए-तलब में किसे आरज़ू-ए-मंज़िल है

शुऊर हो तो सफ़र ख़ुद सफ़र का हासिल है

निखर गए हैं पसीने में भीग कर आरिज़

गुलों ने और भी शबनम से ताज़गी पाई

बस्तियों में होने को हादसे भी होते हैं

पत्थरों की ज़द पर कुछ आईने भी होते हैं

छटे ग़ुबार-ए-नज़र बाम-ए-तूर जाए

पियो शराब कि चेहरे पे नूर जाए

यादों के साए हैं उमीदों के हैं चराग़

हर शय ने साथ छोड़ दिया है तिरी तरह

किसी के हाथ में जाम-ए-शराब आया है

कि माहताब तह-ए-आफ़्ताब आया है

तबाहियों का तो दिल की गिला नहीं लेकिन

किसी ग़रीब का ये आख़िरी सहारा था

ग़म-ए-ज़िंदगी इक मुसलसल अज़ाब

ग़म-ए-ज़िंदगी से मफ़र भी नहीं

मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत

हम ने मुड़ कर भी देखा किसी मंज़िल की तरफ़

जनाब-ए-शैख़ समझते हैं ख़ूब रिंदों को

जनाब-ए-शैख़ को हम भी मगर समझते हैं

ग़ुबार-ए-राह चला साथ ये भी क्या कम है

सफ़र में और कोई हम-सफ़र मिले मिले

मेरे अफ़्कार की रानाइयाँ तेरे दम से

मेरी आवाज़ में शामिल तिरी आवाज़ भी है

लब-ए-निगार को ज़हमत दो ख़ुदा के लिए

हम अहल-ए-शौक़ ज़बान-ए-नज़र समझते हैं

मैं ने कब दावा-ए-इल्हाम किया है 'ताबाँ'

लिख दिया करता हूँ जो दिल पे गुज़रती जाए

आँसुओं से कोई आवाज़ को निस्बत सही

भीगती जाए तो कुछ और निखरती जाए

बड़े बड़ों के क़दम डगमगा गए 'ताबाँ'

रह-ए-हयात में ऐसे मक़ाम भी आए

ये मय-कदा है कलीसा ख़ानक़ाह नहीं

उरूज-ए-फ़िक्र फ़रोग़-ए-नज़र की मंज़िल है

हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र हो कोई

इलाही यूँ तो किसी का राहबर गुम हो

जुनूँ में और ख़िरद में दर-हक़ीक़त फ़र्क़ इतना है

वो ज़ेर-ए-दर है साक़ी और ये ज़ेर-ए-दाम है साक़ी

उधर चमन में ज़र-ए-गुल लुटा इधर 'ताबाँ'

हमारी बे-सर-ओ-सामानियों के दिन आए

आज किसी ने बातों बातों में जब उन का नाम लिया

दिल ने जैसे ठोकर खाई दर्द ने बढ़ कर थाम लिया

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