कैफ़ी विजदानी
ग़ज़ल 8
अशआर 9
सिर्फ़ दरवाज़े तलक जा के ही लौट आया हूँ
ऐसा लगता है कि सदियों का सफ़र कर आया
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ख़ुद ही उछालूँ पत्थर ख़ुद ही सर पर ले लूँ
जब चाहूँ सूने मौसम से मंज़र ले लूँ
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मेरे रस्ते में जो रौनक़ थी मेरे फ़न की थी
मेरे घर में जो अंधेरा था मेरा अपना था
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तू इक क़दम भी जो मेरी तरफ़ बढ़ा देता
मैं मंज़िलें तिरी दहलीज़ से मिला देता
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बचा लिया तिरी ख़ुश्बू के फ़र्क़ ने वर्ना
मैं तेरे वहम में तुझ से लिपटने वाला था
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