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jis ke hote hue hote the zamāne mere

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मिन्हाज अली

ग़ज़ल 2

 

अशआर 6

गुलशन-ए-दहर से ख़ुशबू की तरह गुज़रा मैं

सब को महकाया मगर अपनी नुमाइश नहीं की

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दरमियाँ गरचे हिजाबात नहीं दूरी के

अब जो हाइल है वो पर्दा है शनासाई का

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दीदार का विसाल में आया कोई लुत्फ़

उस रुख़ पे बे-रुख़ी के थे पर्दे पड़े हुए

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बजा कि रौनक़-ए-महफ़िल अभी उरूज पे है

मैं क्या करूँ मिरी ख़ल्वत बुला रही है मुझे

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यही है वक़्त कि जी भर के देख लूँ उस को

वो सामने है मगर देखता नहीं है मुझे

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रुबाई 2

 

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