मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल 37
अशआर 11
अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़
इक बात कह गया वो मगर कितने काम की
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उस का तरकश ख़ाली होने वाला है
मेरे नाम का तीर है कितने तीरों में
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और कोई दुनिया है तेरी जिस की खोज करूँ
ज़ेहन में फिर इक सम्त बिखेरी राहगुज़र डाली
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कौन पूछे मुझ से मेरी गोशा-गीरी का सबब
कौन समझे दर कभी दीवार कर लेना मिरा
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सारे इम्कानात में रौशन सिर्फ़ यही दो पहलू
एक तिरा आईना-ख़ाना इक मेरी हैरानी
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