नदीम भाभा

ग़ज़ल 26

अशआर 10

मोहब्बत, हिज्र, नफ़रत मिल चुकी है

मैं तक़रीबन मुकम्मल हो चुका हूँ

हम ग़ुलामी को मुक़द्दर की तरह जानते हैं

हम तिरी जीत तिरी मात से निकले हुए हैं

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कुछ इस लिए भी अकेला सा हो गया हूँ 'नदीम'

सभी को दोस्त बनाया है दुश्मनी नहीं की

मोहब्बत ने अकेला कर दिया है

मैं अपनी ज़ात में इक क़ाफ़िला था

और कोई पहचान मिरी बनती ही नहीं

जानते हैं सब लोग कि बस तेरा हूँ मैं

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