मोहम्मद अहमद
ग़ज़ल 27
नज़्म 6
अशआर 3
मुझ से ज़िद है तो फिर उस ज़िद को निभाने के लिए
मैं जो मर जाऊँ तो फिर आप भी मर जाइएगा
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गाह हो जाता हूँ मैं अपनी अना का क़ैदी
मैं न आऊँ तो फिर आ कर मुझे छुड़वाएगा
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कहीं था मैं मुझे होना कहीं था
मैं दरिया था मगर सहरा-नशीं था
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पुस्तकें 11
चित्र शायरी 1
कहीं था मैं मुझे होना कहीं था मैं दरिया था मगर सहरा-नशीं था शिकस्त-ओ-रेख़्त कैसी फ़त्ह कैसी कि जब कोई मुक़ाबिल ही नहीं था मिले थे हम तो मौसम हँस दिए थे जहाँ जो भी मिला ख़ंदाँ-जबीं था सवेरा था शब-ए-तीरा के आगे जहाँ दीवार थी रस्ता वहीं था मिली मंज़िल किसे कार-ए-वफ़ा में मगर ये रास्ता कितना हसीं था जिलौ में तिश्नगी आँखों में साहिल कहीं सीने में सहरा जा-गुज़ीं था