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निज़ाम रामपुरी

1819 - 1872 | रामपुर, भारत

निज़ाम रामपुरी के शेर

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है ख़ुशी इंतिज़ार की हर दम

मैं ये क्यूँ पूछूँ कब मिलेंगे आप

देख कर ग़ैर को शोख़ी देखो

मुझ से कहते हैं कि देखा तू ने

अब किस को याँ बुलाएँ किस की तलब करें हम

आँखों में राह निकली दिल में मक़ाम निकला

जो जो मज़े किए हैं ज़बाँ से मैं क्या कहूँ

पास अपने आज तक तिरे मुँह का उगाल है

अंदाज़ अपना देखते हैं आइने में वो

और ये भी देखते हैं कोई देखता हो

क्या दुआ रोज़-ए-हश्र की माँगें

वहाँ पर भी यही ख़ुदा होगा

ख़ुश्बू वो पसीने की तिरी याद जाए

गुल कैसा कभी इत्र भी सूँघा करेंगे

ये हवा सर्द चली और ये बादल आए

कहो साक़ी से कि साग़र चले बोतल आए

मेरे मिलने से जो यूँ हाथ उठा-बैठा तू

नहीं मालूम कि दिल में तिरे क्या बैठ गया

जो कि नादाँ है वो क्या जाने तिरी चाहत की क़द्र

परी दीवाना बनना काम है होशियार का

तेरा मिलना तो है मुश्किल मगर इतना तो हुआ

अपना मरना मुझे आसाँ हुआ था सो हुआ

किस का है इंतिज़ार कहाँ ध्यान है लगा

क्यूँ चौंक चौंक जाते हो आवाज़-ए-पा के साथ

दरबाँ से आप कहते थे कुछ मेरे बाब में

सुनता था मैं भी पास ही दर के खड़ा हुआ

छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती

रोज़ का रूठना नहीं जाता

ये दिन तो सर्फ़ आप के वादों में हो गए

अब दिन नया निकालिए इक़रार के लिए

जो कुछ इशारे होते हैं सब देखता हूँ मैं

सारी शरारत आप की मेरी नज़र में है

अब क्या मिलें किसी से कहाँ जाएँ हम 'निज़ाम'

हम वो नहीं रहे वो मोहब्बत नहीं रही

अपनी अंदाज़ के कह शेर कह ये तू 'निज़ाम'

कि चुनाँ बैठ गया और चुनीं बैठ गई

अब तुम से क्या किसी से शिकायत नहीं मुझे

तुम क्या बदल गए कि ज़माना बदल गया

दो दिन भी उस सनम से अपनी निभी कभी

जब कुछ बनी तो फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से बिगड़ गई

तेरे ही ग़म में मर गए सद-शुक्र

आख़िर इक दिन तो हम को मरना था

इक वो कि रात दिन रहें महफ़िल में उस की हाए

इक हम कि तरसें साया-ए-दीवार के लिए

वो इशारों में उस का कहना हाए

देखो अपने पराए बैठे हैं

क्या किसी से किसी का हाल कहें

नाम भी तो लिया नहीं जाता

रात था वस्ल आज हिज्र का दिन

कुछ ज़माने का ए'तिबार नहीं

उठता हूँ उस की बज़्म से जब हो के ना-उमीद

फिर फिर के देखता हूँ कोई अब पुकार ले

मंज़ूर क्या है ये भी तो खुलता नहीं सबब

मिलता तो है वो हम से मगर कुछ रुका हुआ

गर कोई पूछे मुझे आप इसे जानते हैं

हो के अंजान वो कहते हैं कहीं देखा है

आए भी वो चले भी गए याँ किसे ख़बर

हैराँ हूँ मैं ख़याल है ये या कि ख़्वाब है

मज़मून सूझते हैं हज़ारों नए नए

क़ासिद ये ख़त नहीं मिरे ग़म की किताब है

आप देखें तो मिरे दिल में भी क्या क्या कुछ है

ये भी घर आप का है क्यूँ फिर आबाद रहे

तुम हो गए कुछ और कुछ और हम हुए

कुछ तो सबब हुआ है कि वो रब्त कम हुए

कू-ए-जानाँ में गर अब जाएँ भी तो क्या देखें

कोई रौज़न रहा बन गई दीवार नई

सच है 'निज़ाम' याद भी उस को होंगे हम

पर क्या करें वो हम से भुलाया जाएगा

लिपटा के शब-ए-वस्ल वो उस शोख़ का कहना

कुछ और हवस इस से ज़ियादा तो नहीं है

बन आया जब उन को कोई जवाब

तो मुँह फेर कर मुस्कुराने लगे

अभी तो कहा ही नहीं मैं ने कुछ

अभी तुम जो आँखें चुराने लगे

उस की उल्फ़त में जीते-जी मरना

फ़ाएदा ये भी ज़िंदगी से है

ज़िद है गर है तो हो सभी के साथ

या मिलने की ज़िद मुझी से है

आँखें फूटें जो झपकती भी हों

शब-ए-तन्हाई में कैसा सोना

किस क़दर हिज्र में बेहोशी है

जागना भी है हमारा सोना

हुए नुमूद जो पिस्ताँ तो शर्म खा के कहा

ये क्या बला है जो उठती है मेरे सीने से

अब आओ मिल के सो रहें तकरार हो चुकी

आँखों में नींद भी है बहुत रात कम भी है

उन को मैं इस तरह भुलाऊँ 'निज़ाम'

याद किस बात पर नहीं आते

बोसा तो उस लब-ए-शीरीं से कहाँ मिलता है

गालियाँ भी मिलीं हम को तो मिलीं थोड़ी सी

अब तो सब का तिरे कूचे ही में मस्कन ठहरा

यही आबाद है दुनिया में ज़मीं थोड़ी सी

यूँ तो रूठे हैं मगर लोगों से

पूछते हाल हैं अक्सर मेरा

राह निकलेगी कब तक कोई

तिरी दीवार है और सर मेरा

मैं कहता था कि बहकाएँगे तुम को दुश्मन

तुम ने किस वास्ते आना मिरे घर छोड़ दिया

इक बात लिखी है क्या ही मैं ने

तुझ से तो नामा-बर कहूँगा

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