सुहैल अहमद ज़ैदी
ग़ज़ल 21
अशआर 8
कभी तो लगता है गुमराह कर गई मुझ को
सुख़न-वरी कभी पैग़म्बरी सी लगती है
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देखो तो हर इक शख़्स के हाथों में हैं पत्थर
पूछो तो कहीं शहर बनाने के लिए है
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पेड़ ऊँचा है मगर ज़ेर-ए-ज़मीं कितना है
लब पे है नाम-ए-ख़ुदा दिल में यक़ीं कितना है
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हम ने तो मूँद लीं आँखें ही तिरी दीद के बाद
बुल-हवस जानते हैं कोई हसीं कितना है
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हर सुब्ह अपने घर में उसी वक़्त जागना
आज़ाद लोग भी तो गिरफ़्तार से रहे
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