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मीर तस्कीन देहलवी

1803 - 1852

मीर तस्कीन देहलवी

ग़ज़ल 13

अशआर 11

शब-ए-विसाल में सुनना पड़ा फ़साना-ए-ग़ैर

समझते काश वो अपना राज़दार मुझे

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जिस वक़्त नज़र पड़ती है उस शोख़ पे 'तस्कीं'

क्या कहिए कि जी में मेरे क्या क्या नहीं होता

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'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब

कम-बख़्त को मर कर भी तो आराम आया

करता हूँ तेरी ज़ुल्फ़ से दिल का मुबादला

हर-चंद जानता हूँ ये सौदा बुरा नहीं

क़ासिद आया है वहाँ से तू ज़रा थम तो सही

बात तो करने दे उस से दिल-ए-बेताब मुझे

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