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ज़फ़र इक़बाल के शेर

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अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना

पाँव पर पाँव जो रखना तो दबा भी देना

ऐसा है जैसे आँख की पुतली के वस्त में

नक़्शा बना हुआ है किसी ख़्वाब-ज़ार का

वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें

पहला पहला झूट है उस को यक़ीं जाएगा

तुझ को मेरी मुझे तेरी ख़बर जाएगी

ईद अब के भी दबे पाँव गुज़र जाएगी

रौशनी अब राह से भटका भी देती है मियाँ

उस की आँखों की चमक ने मुझ को बे-घर कर दिया

रास्ते हैं खुले हुए सारे

फिर भी ये ज़िंदगी रुकी हुई है

चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें

दीवार से पुराना कैलन्डर उतार दे

अपनी ये शान-ए-बग़ावत कोई देखे कर

मुँह से इंकार भी है और सर भी झुकाए हुए हैं

वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत

हर एक लफ़्ज़ हर इक नक़्श की अदा देखूँ

लम्बी तान के सो जा और

सिसकी को ख़र्राटा कर

आग जंगल में लगी है दूर दरियाओं के पार

और कोई शहर में फिरता है घबराया हुआ

मैं बिखर जाऊँगा ज़ंजीर की कड़ियों की तरह

और रह जाएगी इस दश्त में झंकार मिरी

रौ में आए तो वो ख़ुद गर्मी-ए-बाज़ार हुए

हम जिन्हें हाथ लगा कर भी गुनहगार हुए

घर नया बर्तन नए कपड़े नए

इन पुराने काग़ज़ों का क्या करें

उस के आते ही निगाहों को झुका लो वर्ना

देख लोगे तो लिपटने को भी जी चाहेगा

तिरी याद में जल्सा-ए-ता'ज़ियत

तुझे भूल जाने का आग़ाज़ था

लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे

'ज़फ़र' वाइज़ हूँ मैं और ख़िदमत-ए-इस्लाम करता हूँ

आसमाँ पर कोई तस्वीर बनाता हूँ 'ज़फ़र'

कि रहे एक तरफ़ और लगे चारों तरफ़

अंदर का ज़हर-नाक अँधेरा ही था बहुत

सर पर तुली खड़ी है शब-ए-तार किस लिए

मैं ख़्वाब-ए-सब्ज़ था दोनों के दरमियान 'ज़फ़र'

कि आसमाँ था सुनहरा ज़मीन भूरी थी

बाहर गली में चलते हुए लोग थक गए

तन्हाइयों का शोर था ख़ाली मकान में

यूँ मोहब्बत से दे मेरी मोहब्बत का जवाब

ये सज़ा सख़्त है थोड़ी सी रिआ'यत कर दे

ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू

शब-ए-विसाल तिरी बात बात से निकला

सफ़र पीछे की जानिब है क़दम आगे है मेरा

मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवाँ होने की ख़ातिर

मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता

नए लम्हों में तस्वीरें पुरानी माँग लेता हूँ

हम पे दुनिया हुई सवार 'ज़फ़र'

और हम हैं सवार दुनिया पर

किरदार उस को ढूँडते फिरते हैं जा-ब-जा

गुम के हो गई है कहानी मिरी तरफ़

ये भी मुमकिन है कि इस कार-गह-ए-दिल में 'ज़फ़र'

काम कोई करे और नाम किसी का लग जाए

यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए

बात कुछ भी हो और दिल में तमाशा लग जाए

पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को

और फिर मेरी ज़बाँ पर तिरा ताला लग जाए

हुस्न उस का उसी मक़ाम पे है

ये मुसाफ़िर सफ़र नहीं करता

हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी

तो शोला उस बदन-पाक से निकलता है

बस एक बार किसी ने गले लगाया था

फिर उस के बाद मैं था मेरा साया था

वो मुझ से अपना पता पूछने को निकले

कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था

तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें

जो मोहब्बत मुफ़्त में मिल जाए आसानी के साथ

अपनी मर्ज़ी से भी हम ने काम कर डाले हैं कुछ

लफ़्ज़ को लड़वा दिया है बेशतर मअ'नी के साथ

मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदर

लहू में एक दस्त-ए-राएगाँ फैला हुआ है

मैं अंदर से कहीं तब्दील होना चाहता था

पुरानी केंचुली में ही नया होना था मुझ को

भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद

वो ख़्वाब है तो यूँही देखने से गुज़रेगा

यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू मिला

किसी को हम मिले और हम को तू मिला

आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब

उस्लूब-ए-ख़ास अपना मैं आम करते करते

थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते

कुछ और थक गया हूँ आराम करते करते

वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी देखा

अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को

जिस का इंकार हथेली पे लिए फिरता हूँ

जानता ही नहीं इंकार का मतलब क्या है

फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने

धान के खेत से इक मौज-ए-हवा आई है

पतंग उड़ाने से क्या मनअ कर सके ज़ाहिद

कि उस की अपनी अबा में पतंग उड़ती है

फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में

सूनी सुलगती सोचती सुनसान सी सड़क

उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं

रात भर बारिश थी उस का रात भर पैग़ाम था

तुम अपनी मस्ती में आन टकराए मुझ से यक-दम

इधर से मैं भी तो बे-ध्यानी में जा रहा था

जिधर से खोल के बैठे थे दर अंधेरे का

उसी तरफ़ से हमें रौशनी बहुत आई

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