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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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ज़फ़र सहबाई

1946 | भोपाल, भारत

ज़फ़र सहबाई

ग़ज़ल 18

अशआर 7

ख़ुदा-ए-अम्न जो कहता है ख़ुद को

ज़मीं पर ख़ुद ही मक़्तल लिख रहा है

जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन

ज़िंदगी को मैं किताबों से अलग रखता हूँ

झूट भी सच की तरह बोलना आता है उसे

कोई लुक्नत भी कहीं पर नहीं आने देता

दिलों के बीच दीवार है सरहद है

दिखाई देते हैं सब फ़ासले नज़र के मुझे

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ये अमल रेत को पानी नहीं बनने देता

प्यास को अपनी सराबों से अलग रखता हूँ

पुस्तकें 8

 

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