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ग़ज़ल
चार लोगों के दिखाने को तो अख़्लाक़ से मिल
और कुछ भी नहीं दुनिया में भरम देखते हैं
सफ़ी औरंगाबादी
नज़्म
ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़रज़ंदों से ख़िताब
तुम ने क़ैसर-बाग़ को देखा तो होगा बारहा
आज भी आती है जिस से हाए 'अख़्तर' की सदा
जोश मलीहाबादी
नज़्म
ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में
तो शहर के सारे पारसा मुझ को टोकते हैं
ख़िलाफ़-ए-अख़्लाक़ जिन के नज़दीक है मोहब्बत
क़तील शिफ़ाई
नज़्म
मता-ए-अल्फ़ाज़
कुछ तकल्लुफ़ से सही ठहर के कुछ बात करें
और इस अर्सा-ए-अख़लाक़-ओ-मुरव्वत में कभी
ज़ेहरा निगाह
नज़्म
इल्म
इल्म है आपस में इख़्लास-ओ-उख़ुव्वत के लिए
ये नहीं औरों के नुक़सान-ओ-हलाकत के लिए
फ़ारूक़ शकील
ग़ज़ल
मिलन-सारी भी सीखो जब निगाह-ए-नाज़ पाई है
मिरी जाँ आदमी अख़्लाक़ से तलवार जौहर से