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ग़ज़ल
छुपाए से कोई छुपती है अपने दिल की बेताबी
कि हर तार-ए-नफ़स अपना रग-ए-बिस्मिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
बे-ताबी कुछ और बढ़ा दी एक झलक दिखला देने से
प्यास बुझे कैसे सहरा की दो बूँदें बरसा देने से
जलील ’आली’
शेर
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
इतना आसान तिरे इश्क़ का ग़म था ही नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
दिल-ए-'मुज़्तर' की बेताबी से दम उलझे तो वापस दो
अगर मर्ज़ी भी हो और दिल न घबराए तो रहने दो
मुज़्तर ख़ैराबादी
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विषय
बेबसी
बेबसी शायरी
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ग़ज़ल
रखते हैं मिरे दिल पर क्यूँ तोहमत-ए-बेताबी
याँ नाला-ए-मुज़्तर की जब मुझ में हो क़ुव्वत भी
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
अफ़्सून-ए-तमन्ना से बेदार हुई आख़िर
कुछ हुस्न में बे-ताबी कुछ 'इश्क़ में ज़ेबाई