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ग़ज़ल
माने-ए-इज़हार तुम को है हया, हम को अदब
कुछ तुम्हारे दिल के अंदर कुछ हमारे दिल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मता-ए-ग़ैर
चार दिन की ये रिफ़ाक़त जो रिफ़ाक़त भी नहीं
उम्र भर के लिए आज़ार हुई जाती है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
दुआ
हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो काँटे की तरह
आज इज़हार करें और ख़लिश मिट जाए