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ग़ज़ल
भीतर से ख़ालिस जज़्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
नहीं है कम ज़र-ए-ख़ालिस से ज़र्दी-ए-रुख़्सार
तुम अपने इश्क़ को ऐ 'ज़ौक़' कीमिया समझो
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
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ग़ज़ल
बहुत बुरा हूँ मिरी जाँ बहुत बुरा हूँ मैं
ख़ुलूस देख मिरा ख़ुद ये कह रहा हूँ मैं
दीपक प्रजापति ख़ालिस
ग़ज़ल
बात बराए बात का ख़ालिस लुत्फ़ उठाएँ आज ज़रा
थोड़ी देर भुला दो झगड़ा उल्टे-सीधे मतलब का
हमीदा शाहीन
ग़ज़ल
इन नौ-रस आँखों वालों का क्या हँसना है क्या रोना है
बरसे हुए सच्चे मोती हैं बहता हुआ ख़ालिस सोना है
साग़र निज़ामी
नज़्म
होली
ख़ालिस कहीं से ताज़ी इक ज़ाफ़रान मँगा कर
मुश्क-ओ-गुलाब में भी मल कर उसे बसा कर
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
इंक़लाब
सलीक़ा इंतिक़ाद-ए-जिंस-ए-हिरफ़त का नहीं हम को
ज़र-ए-ख़ालिस से अबरेशम-नुमा यूरोप ने सन बदला