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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
जिन से कि हो मरबूत वही तुम को है मैमून
इंसान की सोहबत तुम्हें दरकार कहाँ है
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
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नज़्म
सावन के महीने
क्या दिल की तमन्नाओं को मरबूत किया था
सब्ज़े पे चमकती हुई सावन की झड़ी ने
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
हमीं दोनों से है मरबूत इश्क़-ओ-हुस्न का आलम
कि इस की इब्तिदा मैं हूँ और इस की इंतिहा तुम हो
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
ज़ीस्त के पैकर में जब मरबूत हो जाता हूँ मैं
बन के दश्त-ए-ला-मकाँ लाहूत हो जाता हूँ मैं