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नज़्म
मिरे हमदम मिरे दोस्त!
गीत नश्तर तो नहीं मरहम-ए-आज़ार सही
तेरे आज़ार का चारा नहीं नश्तर के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
ज़ख़्मों पर मरहम लगवाओ लेकिन उस के हाथों से
चारा-साज़ी एक तरफ़ है उस का छूना एक तरफ़
वरुन आनन्द
नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
पास रहो
मरहम-ए-मुश्क लिए, नश्तर-ए-अल्मास लिए
बैन करती हुई हँसती हुई, गाती निकले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ख़िज़्र-ए-राह
जस से रौशन-तर हुई चश्म-ए-जहाँ-बीन-ए-ख़लील
और वो पानी के चश्मे पर मक़ाम-ए-कारवाँ