aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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Rajesh Reddy
born.1952
Poet
Rinki Singh Sahiba
born.1987
Bijwada Gopal Reddy
Author
C. M. Reddy
Sanjay Bhos Reddi
Publisher
Dr. C. Narayana Reddy
1931 - 2017
Annapareddy Veera Reddy
Dr Gopal Reddi
K. V. Ranga Reddy
Translator
Ravi Narayana Reddy Tahniyati Committee, Hyderabad
Pengul Venkata Janardhan Reddy
V. K. Reddy
Pengul Venkata Rama Reddy Desmukh
Editor
Yalla Reddy
ranDii bhii aadmii hii nachaate hai.n gat lagaaaur aadmii hii naache hai.n aur dekh phir mazaa
ये तब का ज़िक्र है जब मैं छोटी सी थी और दिन भर भाइयों और उनके दोस्तों के साथ मार कुटाई में गुज़ार दिया करती थी। कभी-कभी मुझे ख़याल आता कि मैं कमबख़्त इतनी लड़ाका क्यों हूँ। उस उम्र में जब कि मेरी और बहनें आशिक़ जमा कर रही थीं मैं अपने पराये हर लड़के और लड़की से जूतम पैज़ार में मशग़ूल थी।यही वजह थी कि अम्माँ जब आगरा जाने लगीं, तो हफ़्ते भर के लिए मुझे अपनी मुँह बोली बहन के पास छोड़ गईं। उनके यहाँ अम्माँ ख़ूब जानती थी कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से लड़ भिड़ न सकूँगी। सज़ा तो ख़ूब थी! हाँ तो अम्माँ मुझे बेगम जान के पास छोड़ गईं। वही बेगम जान जिनका लिहाफ़ अब तक मेरे ज़ेह्न में गर्म लोहे के दाग़ की तरह महफ़ूज़ है। ये बेगम जान थीं जिनके ग़रीब माँ-बाप ने नवाब साहब को इसीलिए दामाद बना लिया कि वो पक्की उम्र के थे। मगर थे निहायत नेक। कोई रंडी, बाज़ारी औरत उनके यहाँ नज़र नहीं आई। ख़ुद हाजी थे और बहुतों को हज करा चुके थे। मगर उन्हें एक अजीब-ओ-ग़रीब शौक़ था। लोगों को कबूतर पालने का शौक़ होता है, बटेरे लड़ाते हैं, मुर्ग़बाज़ी करते हैं। इस क़िस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफ़रत थी। उनके यहाँ तो बस तालिब-ए-इल्म रहते थे। नौजवान गोरे-गोरे पतली कमरों के लड़के जिनका ख़र्च वो ख़ुद बर्दाश्त करते थे।
kaise hii dhuum-dhaam kii ranDii ho KHush-jamaaljab muflisii ho kaan pa.De sar pe us ke jaal
मैंने कहा, “नहीं नहीं... बहुत पी चुके हैं।” वो और ज़्यादा जज़्बाती होगया, “और पीजिए मंटो साहब!” ये कह कर जेब से सौ सौ के नोटों का पुलिंदा निकाला और एक नोट जुदा करने लगा। लेकिन मैंने सब नोट उसके हाथ से लिए और वापस उसकी जेब में ठूंस दिए, “सौ रुपये का एक नोट आपने ग़ुलाम अली को दिया था। उसका क्या हुआ?” मुझे दरअसल कुछ हमदर्दी सी हो गई थी बाबू गोपीनाथ से। ...
Stretching of limbs is a normal human act. It acquires many more postures in poetry, especially Urdu poetry that associates stretching of limbs with the enticing beloved. It adds beauty to her gesture and posture and makes her more romantic, sometimes even tantalizing. You would like this selection on its visual representation by the poets.
Prison house has been used profusely as a metaphor both in classical and modern Urdu poetry. In classical poetry, it was used mostly in a romantic context but in modern poetry it has been used in many more contexts that are social, and even political at times. Have a look at the verses here and see how variously it has been used and with what connotations.
रंडीرنڈی
prostitute
Wajood
Majmua
Satrangi
Sadiqua Nawab Saher
Do Rangi Duniya
George W. M. Reynolds
Novel
Baheta Huva Naghma
Dhoop Chhaon
Chunni Lal Madiya
Hyderabad Ki Awami Jung
Indian History
Gharelu Chutkule
Rahnuma-e-Jamabandi
Law
Runni Kott
Rang Birangee Aakhaniyoon
Do Rangi Tohfa
Ghulam Muhiuddin
Pandit Narayan Parshad Betab
Drama
Sad Barg-e-Mateen Haft Rangi
Syed Khond Meer Mateen
Tabaiyat
Iftetahi Taqreer
जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ, ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी स्टूडियो का मालिक “हुरमुज़ जी फ्रॉम जी” जो मोटे मोटे लाल गालों वाला मौजी क़िस्म का ईरानी था, एक अधेड़ उम्र की ख़ोजा ऐक्ट्रस की मोहब्बत में गिरफ़्तार था। हर नौ-वारिद लड़की के पिस्तान टटोल कर देखना उसका शग़ल था। कलकत्ता के बू बाज़ार की एक मुसलमान रंडी थी जो अपने डायरेक्टर, साउंड रिकार्डिस्ट और स्टोरी राईटर तीनों से ब-यक-वक़्त इश्क़ लड़ा रही थी। उस इश्क़ का दर अस्ल मतलब ये था कि न तीनों का इलतिफ़ात उसके लिए ख़ासतौर पर महफ़ूज़ रहे।
us ra.ng-ra.ngiilii majlis me.n vo ranDii naachne vaalii homu.nh jis kaa chaa.nd kaa Tuk.Daa ho aur aa.nkh bhii mai ke pyaalii ho
kyaa kyaa machii hai.n yaaro barsaat kii bahaare.nye sun ke un se ha.ns ha.ns kahtii hai shoKH ranDii
Chakki Peesne Waali Aurat Jo Din Bhar Kaam Karti Hai Aur Raat Ko Itmeenaan Se So Jaati Hai, Mere Afsaanon Ki Heroin Nahi Ho Sakti. Meri Heroin Chakle Ki Eik Takhyaai Randi Ho Sakti Hai Jo Raat Ko Jaagti Hai Aur Din Ko Sote Mein Kabhi-kabhi Daraawna Khwaab Dekh Kar Uth Baithti Hai Ki Budhaapa Uske Darwaaze Par Dastak Dene Aa Raha Hai... Uske Bhaari-...
اب رونا شروع ہونے والا ہے۔ میاں اکبر بہتر یہی ہے کہ تم چپکے سے کھسک جاؤ۔ اس میں شرمانے کی کیا بات ہے۔ تمہاری مردانگی میں کوئی فرق نہیں آتا۔ خیریت بس اب اسی میں ہے کہ خاموشی کے ساتھ کھسک جاؤ۔ ہجرت کرنے سے ایک رسول کی جان بچی۔ معلوم نہیں ایسے موقع پر رسول بیچارے کیا کرتے تھے، عورتوں نے ان کے بھی تو ناک میں دم کر رکھا تھا۔ تو پھر میری کیا ہستی ہے۔ اے ...
हर वक़्त गुस्से में भरे रहते थे, जाने क्यों। गाली उनका तकिया कलाम थी और जो रंग तक़रीर का था वही तहरीर का। रख हाथ निकलता है धुआं मग़्ज़-ए-क़लम से। ज़ाहिर है कुछ ऐसे लोगों से भी पाला पड़ता था जिन्हें बवजूह गाली नहीं दे सकते थे। ऐसे मौक़ों पर ज़बान से तो कुछ न कहते, लेकिन चेहरे पर ऐसा एक्सप्रेशन लाते कि क़द-ए-आदम गाली नज़र आते। किस की शामत आई थी कि उनकी किसी भी राय से इख़्तिलाफ़ करता। इख़्तिलाफ़ तो दर-किनार, अगर कोई शख़्स महज़ डर के मारे उनकी राय से इत्तफ़ाक़ कर लेता तो फ़ौरन अपनी राय तब्दील करके उल्टे उसके सर हो जाते।
“हरामज़ादो अगर अम्माँ-अब्बा को बतलाया तो बोटियाँ काट कर कुत्तों को खिला दूँगी।” अम्माँ अब्बा को मालूम था कि लड़कों को कितनी ईदी मिली। अगर किसी ईद पर किसी वजह से अब्बा मियाँ न जा पाते तो पैग़ाम पर पैग़ाम आते, “नुसरत ख़ानम बेवा हो गईं, चलो अच्छा हुआ।” मेरा कलेजा ठंडा हुआ बुरे-बुरे पैग़ाम शाम तक आते ही रहते और फिर वो ख़ुद रहमान भाई के कोठे पर से गालियाँ बरस...
ہم رجائی ہیں۔۔۔ دنیا کی سیاہیوں میں بھی ہم اجالے کی لکیریں دیکھ لیتے ہیں۔ ہم کسی کو حقارت کی نظر سے نہیں دیکھتے۔۔۔ چکلوں میں جب کوئی ٹکھیائی اپنے کوٹھے پر سے کسی راہ گزر پر پان کی پیک تھوکتی ہے تو ہم دوسرے تماشائیوں کی طرح نہ تو کبھی اس راہ گزر پر ہنستے ہیں اور نہ کبھی اس ٹکھیائی کو گالیاں دیتے ہیں۔۔۔ ہم یہ واقعہ دیکھ کر رک جائیں گے۔۔۔ ہماری نگاہیں...
बेगम नवाब को पहले तो नायाब के वजूद से कोफ़्त हुई थी, मगर जब वो क़दमों में बिछ गई और यक़ीन दिलाया कि नवाब दूल्हा की बांदी नवाब दुल्हन की बांदी है। वो कोई रंडी ख़ानगी नहीं। ना टकों से ख़रीदी लौंडी हैं। न जाने पुश्त हा पुश्त से कितने नवाबों का ख़ून उनकी रगों में मो’जज़न है। नाचार बेगम को मानना पड़ा। वैसे अब कुछ अंधेरा भी ना था। ख़ानदान के सब मर्द इधर उधर म...
ताई इसरी को कई लोग चवन्नी वाली ताई कहते थे। कई लोग कुँवारी ताई कहते थे क्योंकि ये भी मशहूर था कि जिस दिन से ताया युधराज ने ताई इसरी से शादी की थी, उस दिन से आज तक वो कुँवारी की कुँवारी चली आरही थीं, क्योंकि सुनाने वाले तो ये भी सुनाते हैं कि ताया युधराज ने अपनी शादी से पहले जवानी में इतनी ख़ूबसूरत औरतें देख डाली थीं कि जब उनकी शादी गांव की इस सीधी-...
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