उबलते वक़्त पानी सोचता होगा ज़रूर
अगर बर्तन न होता तो बताता आग को
अक़्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने
दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले
उस से कहना कि धुआँ देखने लाएक़ होगा
आग पहने हुए जाउँगा मैं पानी की तरफ़
अपने जलने का हमेशा से तमाशाई हूँ
आग ये किस ने लगाई मुझे मालूम नहीं
औरों की आग क्या तुझे कुंदन बनाएगी
अपनी भी आग में कभी चुप-चाप जल के देख
सर्द रातों का तक़ाज़ा था बदन जल जाए
फिर वो इक आग जो सीने से लगाई मैं ने
मेरे होने से न होना है मिरा
आग जलने से धुआँ आबाद है
कौनसा नाम दें ऐसी बरसात को जिस के दामन में पानी भी है आग भी
हूक उठती रही रूह जलती रही दिल पिघलता रहा अश्क ढलते रहे
सुब्ह-दम सह्न-ए-गुलिस्ताँ में सबा के झोंके
आतिश-ए-दर्द-ए-मोहब्बत को हवा देते हैं
कुछ यूँ फ़ना हुआ हूँ मोहब्बत की आग में
दुनिया को दे चला हूँ कहानी मलाल की
मैं घर बसा के समुंदर के बीच सोया था
उठा तो आग की लपटों में था मकान मिरा
चमक उठे मिरी आँखों में अश्क की सूरत
जो आग दिल में है रौशन ज़बाँ से ज़ाहिर हो
हमीं बुझाते हैं लौ पहले सब चराग़ों की
फिर इन चराग़ों के हिस्से का जलना पड़ता है