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अभिषेक शुक्ला

1985 | लखनऊ, भारत

भारतीय उर्दू ग़ज़ल की नई नस्ल की एक रौशन आवाज़।

भारतीय उर्दू ग़ज़ल की नई नस्ल की एक रौशन आवाज़।

अभिषेक शुक्ला

ग़ज़ल 24

अशआर 23

मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में

ये ज़िंदगी भी मुझे सोच कर रह जाए

मैं यूँ ही नहीं अपनी हिफ़ाज़त में लगा हूँ

मुझ में कहीं लगता है कि रक्खा हुआ तू है

तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है

आज की रात मुझे ख़्वाब में रोता हुआ देख

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मैं ने जब ख़ुद की तरफ़ ग़ौर से देखा तो खुला

मुझ को इक मेरे सिवा कोई परेशानी नहीं

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कभी कभी तो ये वहशत भी हम पे गुज़री है

कि दिल के साथ ही देखा है डूबना शब का

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