हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
ख़ामुशी भी तो हुई पुश्त-पनाही की तरह
हज़ारों ज़ुल्म हों मज़लूम पर तो चुप रहे दुनिया
अगर मज़लूम कुछ बोले तो दहशत-गर्द कहती है
जाने क्या क्या ज़ुल्म परिंदे देख के आते हैं
शाम ढले पेड़ों पर मर्सिया-ख़्वानी होती है
कुछ ज़ुल्म ओ सितम सहने की आदत भी है हम को
कुछ ये है कि दरबार में सुनवाई भी कम है
कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है
ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक
कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे
असीरान-ए-क़फ़स पर ज़ुल्म तो सय्याद करते हैं
कि उन के पर कतर लेते हैं तब आज़ाद करते हैं