Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
Ahmad Mushtaq's Photo'

पाकिस्तान के सबसे विख्यात और प्रतिष्ठित आधुनिक शायरों में से एक, अपनी नव-क्लासिकी लय के लिए प्रसिद्ध।

पाकिस्तान के सबसे विख्यात और प्रतिष्ठित आधुनिक शायरों में से एक, अपनी नव-क्लासिकी लय के लिए प्रसिद्ध।

अहमद मुश्ताक़ के शेर

37.1K
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

अरे क्यूँ डर रहे हो जंगल से

ये कोई आदमी की बस्ती है

तमाशा-गाह-ए-जहाँ में मजाल-ए-दीद किसे

यही बहुत है अगर सरसरी गुज़र जाएँ

यही दुनिया थी मगर आज भी यूँ लगता है

जैसे काटी हों तिरे हिज्र की रातें कहीं और

अब शुग़्ल है यही दिल-ए-ईज़ा-पसंद का

जो ज़ख़्म भर गया है निशाँ उस का देखना

बला की चमक उस के चेहरे पे थी

मुझे क्या ख़बर थी कि मर जाएगा

जैसे पौ फट रही हो जंगल में

यूँ कोई मुस्कुराए जाता है

चुप कहीं और लिए फिरती थी बातें कहीं और

दिन कहीं और गुज़रते थे तो रातें कहीं और

गुज़रे हज़ार बादल पलकों के साए साए

उतरे हज़ार सूरज इक शह-नशीन-ए-दिल पर

वहाँ सलाम को आती है नंगे पाँव बहार

खिले थे फूल जहाँ तेरे मुस्कुराने से

फ़ज़ा-ए-दिल पे कहीं छा जाए यास का रंग

कहाँ हो तुम कि बदलने लगा है घास का रंग

उम्र भर दुख सहते सहते आख़िर इतना तो हुआ

अपनी चुप को देख लेता हूँ सदा बनते हुए

छत से कुछ क़हक़हे अभी तक

जालों की तरह लटक रहे हैं

मिलने की ये कौन घड़ी थी

बाहर हिज्र की रात खड़ी थी

इक ज़माना था कि सब एक जगह रहते थे

और अब कोई कहीं कोई कहीं रहता है

मिल ही जाएगा कभी दिल को यक़ीं रहता है

वो इसी शहर की गलियों में कहीं रहता है

रोज़ मिलने पे भी लगता था कि जुग बीत गए

इश्क़ में वक़्त का एहसास नहीं रहता है

जिस की साँसों से महकते थे दर-ओ-बाम तिरे

मकाँ बोल कहाँ अब वो मकीं रहता है

दिल फ़सुर्दा तो हुआ देख के उस को लेकिन

उम्र भर कौन जवाँ कौन हसीं रहता है

दिल भर आया काग़ज़-ए-ख़ाली की सूरत देख कर

जिन को लिखना था वो सब बातें ज़बानी हो गईं

जो मुक़द्दर था उसे तो रोकना बस में था

उन का क्या करते जो बातें ना-गहानी हो गईं

इक रात चाँदनी मिरे बिस्तर पे आई थी

मैं ने तराश कर तिरा चेहरा बना दिया

एक लम्हे में बिखर जाता है ताना-बाना

और फिर उम्र गुज़र जाती है यकजाई में

बहुत उदास हो तुम और मैं भी बैठा हूँ

गए दिनों की कमर से कमर लगाए हुए

मुझे मालूम है अहल-ए-वफ़ा पर क्या गुज़रती है

समझ कर सोच कर तुझ से मोहब्बत कर रहा हूँ मैं

तिरे आने का दिन है तेरे रस्ते में बिछाने को

चमकती धूप में साए इकट्ठे कर रहा हूँ मैं

यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में

कोई रो कर तो कोई बाल बना कर आया

मैं बहुत ख़ुश था कड़ी धूप के सन्नाटे में

क्यूँ तिरी याद का बादल मिरे सर पर आया

जब शाम उतरती है क्या दिल पे गुज़रती है

साहिल ने बहुत पूछा ख़ामोश रहा पानी

मौत ख़ामोशी है चुप रहने से चुप लग जाएगी

ज़िंदगी आवाज़ है बातें करो बातें करो

कैसे सकती है ऐसी दिल-नशीं दुनिया को मौत

कौन कहता है कि ये सब कुछ फ़ना हो जाएगा

रोने लगता हूँ मोहब्बत में तो कहता है कोई

क्या तिरे अश्कों से ये जंगल हरा हो जाएगा

गुम रहा हूँ तिरे ख़यालों में

तुझ को आवाज़ उम्र भर दी है

मैं ने कहा कि देख ये मैं ये हवा ये रात

उस ने कहा कि मेरी पढ़ाई का वक़्त है

व्याख्या

अहमद मुश्ताक़ का यह शे’र विषय की नवीनता की दृष्टि से बहुत दिलचस्प है। अहमद मुश्ताक़ की विशेषता यह है कि वो बहुत सीधे सरल और सामान्य अनुभवों और अवलोकनों को कुछ इस तरह शे’र के रूप में ढालते हैं कि अक़्ल हैरान होजाती है। इस शे’र में दो पात्र हैं और दोनों के बीच एक छोटा सा संवाद भी है। अगर शे’र के विधानों में ख़ुद काव्य पात्र, हवा और रात होते तो काव्य पात्र की हैसियत एकहरी हो कर रह जाती। मगर रात और हवा की मदद से जो आकृति बनाई गई है इससे काव्य पात्र की हैसियत आशिक़ की हो जाती है। लेकिन आशिक़-ओ-माशूक़ दोनों की हैसियत भिन्न है। आशिक़ जहाँ अपने आपको प्रकृति के दृश्यों का एक हिस्सा मान कर अपनी प्रेमिका से उस तरफ़ आकर्षित होने को कहता है वहीं प्रेमिका इतनी व्यवहारिक है कि उसे ऐसे रूमानी वातावरण में भी अपनी पढ़ाई याद आजाती हैं। यहाँ अहमद फ़राज़ का ये शे’र याद आजाता है;

सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं

वो एक शख़्स कि शायर बना गया मुझको

विचाराधीन शे’र में जब काव्य पात्र के रूमानी स्वभाव का ज़िंदगी की ठोस हक़ीक़त से सरोकार रखने वाले माशूक़ से टकराव होता है तो एक दुखद रूप शे’र के राग में ढल जाता है। जब काव्य पात्र ये कहता है कि “मैंने कहा कि देख” तो ऐसा महसूस होता है कि उसकी बातों में महबूब को कोई दिलचस्पी नहीं और वो उकता कर उठने लगता है। तब काव्य पात्र पहले ख़ुद हैरान हुआ और फिर रात को देखने के लिए कहता है लेकिन त्रासदी ये है कि उस के महबूब को पढ़ाई का समय याद आजाता है।

शफ़क़ सुपुरी

होती है शाम आँख से आँसू रवाँ हुए

ये वक़्त क़ैदियों की रिहाई का वक़्त है

वो जो रात मुझ को बड़े अदब से सलाम कर के चला गया

उसे क्या ख़बर मिरे दिल में भी कभी आरज़ू-ए-गुनाह थी

कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए

लहू मिरे ही जिगर में था तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी

झिलमिलाते रहे वो ख़्वाब जो पूरे हुए

दर्द बेदार टपकता रहा आँसू आँसू

दुख के सफ़र पे दिल को रवाना तो कर दिया

अब सारी उम्र हाथ हिलाते रहेंगे हम

नींदों में फिर रहा हूँ उसे ढूँढता हुआ

शामिल जो एक ख़्वाब मिरे रत-जगे में था

तन्हाई में करनी तो है इक बात किसी से

लेकिन वो किसी वक़्त अकेला नहीं होता

वो वक़्त भी आता है जब आँखों में हमारी

फिरती हैं वो शक्लें जिन्हें देखा नहीं होता

हम उन को सोच में गुम देख कर वापस चले आए

वो अपने ध्यान में बैठे हुए अच्छे लगे हम को

ख़ैर बदनाम तो पहले भी बहुत थे लेकिन

तुझ से मिलना था कि पर लग गए रुस्वाई को

नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है

हम भी ऐसे ही थे जब आए थे वीराने में

संग उठाना तो बड़ी बात है अब शहर के लोग

आँख उठा कर भी नहीं देखते दीवाने को

तू ने ही तो चाहा था कि मिलता रहूँ तुझ से

तेरी यही मर्ज़ी है तो अच्छा नहीं मिलता

इस मअ'रके में इश्क़ बेचारा करेगा क्या

ख़ुद हुस्न को हैं जान के लाले पड़े हुए

ये वो मौसम है जिस में कोई पत्ता भी नहीं हिलता

दिल-ए-तन्हा उठाता है सऊबत शाम-ए-हिज्राँ की

पानी में अक्स और किसी आसमाँ का है

ये नाव कौन सी है ये दरिया कहाँ का है

कोई तस्वीर मुकम्मल नहीं होने पाती

धूप देते हैं तो साया नहीं रहने देते

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

GET YOUR PASS
बोलिए