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Ahmad Mushtaq's Photo'

पाकिस्तान के सबसे विख्यात और प्रतिष्ठित आधुनिक शायरों में से एक, अपनी नव-क्लासिकी लय के लिए प्रसिद्ध।

पाकिस्तान के सबसे विख्यात और प्रतिष्ठित आधुनिक शायरों में से एक, अपनी नव-क्लासिकी लय के लिए प्रसिद्ध।

अहमद मुश्ताक़ के शेर

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पता अब तक नहीं बदला हमारा

वही घर है वही क़िस्सा हमारा

तन्हाई में करनी तो है इक बात किसी से

लेकिन वो किसी वक़्त अकेला नहीं होता

एक लम्हे में बिखर जाता है ताना-बाना

और फिर उम्र गुज़र जाती है यकजाई में

तू अगर पास नहीं है कहीं मौजूद तो है

तेरे होने से बड़े काम हमारे निकले

अहल-ए-हवस तो ख़ैर हवस में हुए ज़लील

वो भी हुए ख़राब, मोहब्बत जिन्हों ने की

इश्क़ में कौन बता सकता है

किस ने किस से सच बोला है

पानी में अक्स और किसी आसमाँ का है

ये नाव कौन सी है ये दरिया कहाँ का है

ख़ैर बदनाम तो पहले भी बहुत थे लेकिन

तुझ से मिलना था कि पर लग गए रुस्वाई को

नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है

हम भी ऐसे ही थे जब आए थे वीराने में

ये पानी ख़ामुशी से बह रहा है

इसे देखें कि इस में डूब जाएँ

अब उस की शक्ल भी मुश्किल से याद आती है

वो जिस के नाम से होते थे जुदा मिरे लब

रोने लगता हूँ मोहब्बत में तो कहता है कोई

क्या तिरे अश्कों से ये जंगल हरा हो जाएगा

रोज़ मिलने पे भी लगता था कि जुग बीत गए

इश्क़ में वक़्त का एहसास नहीं रहता है

मिल ही जाएगा कभी दिल को यक़ीं रहता है

वो इसी शहर की गलियों में कहीं रहता है

मैं ने कहा कि देख ये मैं ये हवा ये रात

उस ने कहा कि मेरी पढ़ाई का वक़्त है

व्याख्या

अहमद मुश्ताक़ का यह शे’र विषय की नवीनता की दृष्टि से बहुत दिलचस्प है। अहमद मुश्ताक़ की विशेषता यह है कि वो बहुत सीधे सरल और सामान्य अनुभवों और अवलोकनों को कुछ इस तरह शे’र के रूप में ढालते हैं कि अक़्ल हैरान होजाती है। इस शे’र में दो पात्र हैं और दोनों के बीच एक छोटा सा संवाद भी है। अगर शे’र के विधानों में ख़ुद काव्य पात्र, हवा और रात होते तो काव्य पात्र की हैसियत एकहरी हो कर रह जाती। मगर रात और हवा की मदद से जो आकृति बनाई गई है इससे काव्य पात्र की हैसियत आशिक़ की हो जाती है। लेकिन आशिक़-ओ-माशूक़ दोनों की हैसियत भिन्न है। आशिक़ जहाँ अपने आपको प्रकृति के दृश्यों का एक हिस्सा मान कर अपनी प्रेमिका से उस तरफ़ आकर्षित होने को कहता है वहीं प्रेमिका इतनी व्यवहारिक है कि उसे ऐसे रूमानी वातावरण में भी अपनी पढ़ाई याद आजाती हैं। यहाँ अहमद फ़राज़ का ये शे’र याद आजाता है;

सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं

वो एक शख़्स कि शायर बना गया मुझको

विचाराधीन शे’र में जब काव्य पात्र के रूमानी स्वभाव का ज़िंदगी की ठोस हक़ीक़त से सरोकार रखने वाले माशूक़ से टकराव होता है तो एक दुखद रूप शे’र के राग में ढल जाता है। जब काव्य पात्र ये कहता है कि “मैंने कहा कि देख” तो ऐसा महसूस होता है कि उसकी बातों में महबूब को कोई दिलचस्पी नहीं और वो उकता कर उठने लगता है। तब काव्य पात्र पहले ख़ुद हैरान हुआ और फिर रात को देखने के लिए कहता है लेकिन त्रासदी ये है कि उस के महबूब को पढ़ाई का समय याद आजाता है।

शफ़क़ सुपुरी

भूल गई वो शक्ल भी आख़िर

कब तक याद कोई रहता है

ये तन्हा रात ये गहरी फ़ज़ाएँ

उसे ढूँडें कि उस को भूल जाएँ

इक रात चाँदनी मिरे बिस्तर पे आई थी

मैं ने तराश कर तिरा चेहरा बना दिया

कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए

लहू मिरे ही जिगर में था तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी

इक ज़माना था कि सब एक जगह रहते थे

और अब कोई कहीं कोई कहीं रहता है

तुम आए हो तुम्हें भी आज़मा कर देख लेता हूँ

तुम्हारे साथ भी कुछ दूर जा कर देख लेता हूँ

हम अपनी धूप में बैठे हैं 'मुश्ताक़'

हमारे साथ है साया हमारा

यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में

कोई रो कर तो कोई बाल बना कर आया

मौत ख़ामोशी है चुप रहने से चुप लग जाएगी

ज़िंदगी आवाज़ है बातें करो बातें करो

खोया है कुछ ज़रूर जो उस की तलाश में

हर चीज़ को इधर से उधर कर रहे हैं हम

हम उन को सोच में गुम देख कर वापस चले आए

वो अपने ध्यान में बैठे हुए अच्छे लगे हम को

तू ने ही तो चाहा था कि मिलता रहूँ तुझ से

तेरी यही मर्ज़ी है तो अच्छा नहीं मिलता

नींदों में फिर रहा हूँ उसे ढूँढता हुआ

शामिल जो एक ख़्वाब मिरे रत-जगे में था

गुम रहा हूँ तिरे ख़यालों में

तुझ को आवाज़ उम्र भर दी है

बहता आँसू एक झलक में कितने रूप दिखाएगा

आँख से हो कर गाल भिगो कर मिट्टी में मिल जाएगा

मैं बहुत ख़ुश था कड़ी धूप के सन्नाटे में

क्यूँ तिरी याद का बादल मिरे सर पर आया

बला की चमक उस के चेहरे पे थी

मुझे क्या ख़बर थी कि मर जाएगा

दुख के सफ़र पे दिल को रवाना तो कर दिया

अब सारी उम्र हाथ हिलाते रहेंगे हम

मुझे मालूम है अहल-ए-वफ़ा पर क्या गुज़रती है

समझ कर सोच कर तुझ से मोहब्बत कर रहा हूँ मैं

होती है शाम आँख से आँसू रवाँ हुए

ये वक़्त क़ैदियों की रिहाई का वक़्त है

दिल फ़सुर्दा तो हुआ देख के उस को लेकिन

उम्र भर कौन जवाँ कौन हसीं रहता है

कोई तस्वीर मुकम्मल नहीं होने पाती

धूप देते हैं तो साया नहीं रहने देते

वो जो रात मुझ को बड़े अदब से सलाम कर के चला गया

उसे क्या ख़बर मिरे दिल में भी कभी आरज़ू-ए-गुनाह थी

कैसे सकती है ऐसी दिल-नशीं दुनिया को मौत

कौन कहता है कि ये सब कुछ फ़ना हो जाएगा

जब शाम उतरती है क्या दिल पे गुज़रती है

साहिल ने बहुत पूछा ख़ामोश रहा पानी

वही गुलशन है लेकिन वक़्त की पर्वाज़ तो देखो

कोई ताइर नहीं पिछले बरस के आशियानों में

संग उठाना तो बड़ी बात है अब शहर के लोग

आँख उठा कर भी नहीं देखते दीवाने को

जैसे पौ फट रही हो जंगल में

यूँ कोई मुस्कुराए जाता है

अरे क्यूँ डर रहे हो जंगल से

ये कोई आदमी की बस्ती है

मिलने की ये कौन घड़ी थी

बाहर हिज्र की रात खड़ी थी

वहाँ सलाम को आती है नंगे पाँव बहार

खिले थे फूल जहाँ तेरे मुस्कुराने से

गुज़रे हज़ार बादल पलकों के साए साए

उतरे हज़ार सूरज इक शह-नशीन-ए-दिल पर

चाँद भी निकला सितारे भी बराबर निकले

मुझ से अच्छे तो शब-ए-ग़म के मुक़द्दर निकले

जिस की साँसों से महकते थे दर-ओ-बाम तिरे

मकाँ बोल कहाँ अब वो मकीं रहता है

बहुत उदास हो तुम और मैं भी बैठा हूँ

गए दिनों की कमर से कमर लगाए हुए

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