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गुलशन पर शेर

तख़्लीक़ी ज़बान तर्सील

और बयान की सीधी मंतिक़ के बर-अक्स होती है। इस में कुछ अलामतें हैं कुछ इस्तिआरे हैं जिन के पीछे वाक़ियात, तसव्वुरात और मानी का पूरा एक सिलसिला होता है। चमन, सय्याद, गुलशन, नशेमन, क़फ़स जैसी लफ़्ज़ियात इसी क़बील की हैं। यहाँ जो शायरी हम-पेश कर रहे हैं वह चमन की उन जहतों को सामने लाती है जो आम तौर से हमारी निगाहों से ओझल होती है।

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

व्याख्या

इस शे’र का मिज़ाज ग़ज़ल के पारंपरिक स्वभाव के समान है। चूँकि फ़ैज़ ने प्रगतिशील विचारों के प्रतिनिधित्व में भी उर्दू छंदशास्त्र की परंपरा का पूरा ध्यान रखा इसलिए उनकी रचनाओं में प्रतीकात्मक स्तर पर प्रगतिवादी सोच दिखाई देती है इसलिए उनकी शे’री दुनिया में और भी संभावनाएं मौजूद हैं। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ये मशहूर शे’र है। बाद-ए-नौ-बहार के मायने नई बहार की हवा है। पहले इस शे’र की व्याख्या प्रगतिशील विचार को ध्यान मे रखते हुए करते हैं। फ़ैज़ की शिकायत ये रही है कि क्रांति होने के बावजूद शोषण की चक्की में पिसने वालों की क़िस्मत नहीं बदलती। इस शे’र में अगर बाद-ए-नौबहार को क्रांति का प्रतीक मान लिया जाये तो शे’र का अर्थ ये बनता है कि गुलशन (देश, समय आदि) का कारोबार तब तक नहीं चल सकता जब तक कि क्रांति अपने सही मायने में नहीं आती। इसीलिए वो क्रांति या परिवर्तन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जब तुम प्रगट हो जाओगे तब फूलों में नई बहार की हवा ताज़गी लाएगी। और इस तरह से चमन का कारोबार चलेगा। दूसरे शब्दों में वो अपने महबूब से कहते हैं कि तुम अब भी जाओ ताकि गुलों में नई बहार की हवा रंग भरे और चमन खिल उठे।

शफ़क़ सुपुरी

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

गुलशन की फ़क़त फूलों से नहीं काँटों से भी ज़ीनत होती है

जीने के लिए इस दुनिया में ग़म की भी ज़रूरत होती है

सबा अफ़ग़ानी

मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते

है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला

अहमद फ़राज़

कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन

जब तक उलझे काँटों से दामन

फ़ना निज़ामी कानपुरी

वही गुलशन है लेकिन वक़्त की पर्वाज़ तो देखो

कोई ताइर नहीं पिछले बरस के आशियानों में

अहमद मुश्ताक़

हम को इस की क्या ख़बर गुलशन का गुलशन जल गया

हम तो अपना सिर्फ़ अपना आशियाँ देखा किए

हसन नज्मी सिकन्दरपुरी

क्या इसी वास्ते सींचा था लहू से अपने

जब सँवर जाए चमन आग लगा दी जाए

अली अहमद जलीली

मैं उस गुलशन का बुलबुल हूँ बहार आने नहीं पाती

कि सय्याद आन कर मेरा गुलिस्ताँ मोल लेते हैं

हैदर अली आतिश

गुलशन में हम होंगे तो फिर सोग हमारा

गुल-पैरहन ग़ुंचा-दहन करते रहेंगे

अबुल मुजाहिद ज़ाहिद

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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