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अल्लामा इक़बाल

1877 - 1938 | लाहौर, पाकिस्तान

महान उर्दू शायर, पाकिस्तान के राष्ट्र-कवि जिन्होंने 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' और 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी' जैसे गीतों की रचना की

महान उर्दू शायर, पाकिस्तान के राष्ट्र-कवि जिन्होंने 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' और 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी' जैसे गीतों की रचना की

अल्लामा इक़बाल के शेर

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हया नहीं है ज़माने की आँख में बाक़ी

ख़ुदा करे कि जवानी तिरी रहे बे-दाग़

नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर

तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में

अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी

ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में नूरी है नारी है

मिलेगा मंज़िल-ए-मक़्सूद का उसी को सुराग़

अँधेरी शब में है चीते की आँख जिस का चराग़

कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है

बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है

हाँ दिखा दे तसव्वुर फिर वो सुब्ह शाम तू

दौड़ पीछे की तरफ़ गर्दिश-ए-अय्याम तू

बातिल से दबने वाले आसमाँ नहीं हम

सौ बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है

पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है

जन्नत की ज़िंदगी है जिस की फ़ज़ा में जीना

मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी

उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो

तमन्ना दर्द-ए-दिल की हो तो कर ख़िदमत फ़क़ीरों की

नहीं मिलता ये गौहर बादशाहों के ख़ज़ीनों में

समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दोस्ताँ वालो

तुम्हारी दास्ताँ तक भी होगी दास्तानों में

आँख जो कुछ देखती है लब पे सकता नहीं

महव-ए-हैरत हूँ कि दुनिया क्या से क्या हो जाएगी

उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में

नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में

हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले

तमांचे मौज के खाते थे जो बन कर गुहर निकले

तुर्कों का जिस ने दामन हीरों से भर दिया था

मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है

मुझे रोकेगा तू नाख़ुदा क्या ग़र्क़ होने से

कि जिन को डूबना है डूब जाते हैं सफ़ीनों में

अंदाज़-ए-बयाँ गरचे बहुत शोख़ नहीं है

शायद कि उतर जाए तिरे दिल में मिरी बात

वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग

इसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ

कमाल-ए-जोश-ए-जुनूँ में रहा मैं गर्म-ए-तवाफ़

ख़ुदा का शुक्र सलामत रहा हरम का ग़िलाफ़

सुल्तानी-ए-जम्हूर का आता है ज़माना

जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आए मिटा दो

तू क़ादिर आदिल है मगर तेरे जहाँ में

हैं तल्ख़ बहुत बंदा-ए-मज़दूर के औक़ात

यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो

तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो

तुझे किताब से मुमकिन नहीं फ़राग़ कि तू

किताब-ख़्वाँ है मगर साहिब-ए-किताब नहीं

मैं ना-ख़ुश-ओ-बे-ज़ार हूँ मरमर की सिलों से

मेरे लिए मिट्टी का हरम और बना दो

उट्ठो मिरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो

काख़-ए-उमारा के दर-ओ-दीवार हिला दो

मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने

मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन सका

जिन्हें मैं ढूँढता था आसमानों में ज़मीनों में

वो निकले मेरे ज़ुल्मत-ख़ाना-ए-दिल के मकीनों में

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा

हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक

कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक

पास था नाकामी-ए-सय्याद का हम-सफ़ीर

वर्ना मैं और उड़ के आता एक दाने के लिए

राज़-ए-हयात पूछ ले ख़िज़्र-ए-ख़जिस्ता गाम से

ज़िंदा हर एक चीज़ है कोशिश-ए-ना-तमाम से

नशा पिला के गिराना तो सब को आता है

मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी

यक़ीं मोहकम अमल पैहम मोहब्बत फ़ातेह-ए-आलम

जिहाद-ए-ज़िंदगानी में हैं ये मर्दों की शमशीरें

है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़

अहल-ए-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद

'इक़बाल' लखनऊ से दिल्ली से है ग़रज़

हम तो असीर हैं ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-कमाल के

अक़्ल को तन्क़ीद से फ़ुर्सत नहीं

इश्क़ पर आमाल की बुनियाद रख

ज़िंदगानी की हक़ीक़त कोहकन के दिल से पूछ

जू-ए-शीर तेशा संग-ए-गिराँ है ज़िंदगी

चमन-ज़ार-ए-मोहब्ब्बत में ख़मोशी मौत है बुलबुल

यहाँ की ज़िंदगी पाबंदी-ए-रस्म-ए-फ़ुग़ाँ तक है

ग़ुलामी में काम आती हैं शमशीरें तदबीरें

जो हो ज़ौक़-ए-यक़ीं पैदा तो कट जाती हैं ज़ंजीरें

सौ सौ उमीदें बंधती है इक इक निगाह पर

मुझ को ऐसे प्यार से देखा करे कोई

समुंदर से मिले प्यासे को शबनम

बख़ीली है ये रज़्ज़ाक़ी नहीं है

महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं

मगर घड़ियाँ जुदाई की गुज़रती हैं महीनों में

मोहब्बत के लिए दिल ढूँढ कोई टूटने वाला

ये वो मय है जिसे रखते हैं नाज़ुक आबगीनों में

मीर-ए-अरब को आई ठंडी हवा जहाँ से

मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है

दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब

क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

अक़्ल अय्यार है सौ भेस बदल लेती है

इश्क़ बेचारा ज़ाहिद है मुल्ला हकीम

हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा

मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए

क़तरे जो थे मिरे अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के

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Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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