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गोपी चंद नारंग के लेख
उर्दू और हिन्दी का लिसानी इश्तिराक-2
उर्दू और हिन्दी के रिश्ते के बारे में ये सवाल अक्सर उठाया जाता है कि उर्दू और हिन्दी एक ज़बान हैं या दो ज़बानें। बा'ज़ हज़रात उन्हें एक ज़बान के दो उस्लूब भी मानते हैं और असालीब की इस तफ़रीक़ की ज़िम्मेदारी नई बुर्ज्वाज़ी के सर डालते हैं जिसने दोनों
ज़बान के साथ कबीर का जादूई बरताव
कबीर का दर्जा संत कवियों में बहुत ऊँचा है। इनकी पैदाइश संबत 1455 विक्रमी (1398 ई.) की बताई जाती है। कहा जाता है कि वो पूरी पन्द्रहवीं सदी और कुछ बाद तक ज़िंदा रहे। वो काशी में पैदा हुए। उस ज़माने की पूरबी या'नी अवधी और भोजपुरी का क़दीमी रूप जैसा उस वक़्त
मरासी-ए-अनीस का तहज़ीबी मुतालेआ
उर्दू मर्सिए के तमा्म वाक़िआत और किरदार अरब की इस्लामी तारीख़ से माख़ूज़ हैं। इनमें कुछ भी हिंदुस्तान का नहीं। लेकिन मर्सिया को जो फ़रोग़-ए-हिंदुस्तान में हासिल हुआ, अरब ममालिक या ईरान में नहीं हुआ। उर्दू मर्सिया दक्कन में भी लिखा गया और दिल्ली में भी
अदबी तंक़ीद और उसलूबियात
बा'ज़ लोग उस्लूबियात को एक हव्वा समझने लगे हैं। उस्लूबियात का ज़िक्र उर्दू में अब जिस तरह जा-ब-जा होने लगा है, इससे बा'ज़ लोगों की इस ज़ेहनीयत की निशान-देही होती है कि वो उस्लूबियात से ख़ौफ़-ज़दा हैं। उस्लूबियात ने चंद बरसों में इतनी साख तो बहरहाल क़ाइम
उर्दू रस्म-उल-ख़त: एक तारीख़ी बहस
(नोट: कुछ अरसा हुआ "दोस्त" में ख़्वाजा अहमद अब्बास का एक मज़्मून (धर्म युग) हिन्दी से तर्जुमा कर के शाएअ् किया गया था। उसमें ख़्वाजा साहब ने उर्दू वालों को मश्वरा दिया था कि वो अपना रस्म-उल-ख़त देवनागरी कर लें। "दोस्त" की जानिब से उसका जवाब दिया गया,
उर्दू और हिन्दी का लिसानी इश्तिराक-1
जितना गहरा रिश्ता उर्दू और हिन्दी में है शायद दुनिया की किसी दो ज़बानों में नहीं। दोनों की बुनियाद और डोल और कैंडा बिल्कुल एक हैं। यहाँ तक कि कई बार दोनों ज़बानों को एक समझ लिया जाता है। दोनों एक ही सर चश्मे से पैदा हुईं, जिसके बाद दोनों का इर्तिक़ा
उर्दू अदब में इत्तिहाद-पसंदी के रुजहानात (१)
उर्दू ज़बान इस्लामी और हिंदुस्तानी तहज़ीबों के संगम का वो नुक़्ता-ए-इत्तिसाल है, जहाँ से इन दोनों तहज़ीबों के धारे एक नए लिसानी धारे के ब-तौर एक होकर बहने लगते हैं। उर्दू के चमन-ज़ार में जहाँ लाला-ओ-गुल, नसरीन-ओ-सुमन नज़र आते हैं, वहाँ सरस और टेसू
इंतिज़ार हुसैन का फ़न: मुतहर्रिक ज़हन का सय्याल सफ़र
इंतिज़ार हुसैन उस अह्द के अहम तरीन अफ़साना-निगारों में से हैं। अपने पुर-तासीर तम्सीली उस्लूब के ज़रिए उन्होंने उर्दू अफ़साने को नए फ़न्नी और मा'नियाती इम्कानात से आशना कराया है और उर्दू अफ़साने का रिश्ता ब-यक-वक़्त दास्तान, हिकायत, मज़हबी रिवायतों,
उर्दू की हिन्दुस्तानी बुनियाद
उर्दू का तअल्लुक़ हिंदुस्तान और हिंदुस्तान की ज़बानों से बहुत गहरा है। ये ज़बान यहीं पैदा हुई और यहीं पली बढ़ी। आर्याओं की क़दीम ज़बान संस्कृत या इंडक चार पुश्तों से इसकी जद्द-ए-अमजद क़रार पाती है। यूँ तो हिंदुस्तान में ज़बानों के कई ख़ानदान हैं लेकिन
उसलूबियात-ए-अनीस
अनीस के शे'री कमाल और उनकी फ़साहत की दाद किसने नहीं दी लेकिन अनीस के साथ इंसाफ़ सबसे पहले शिबली ने किया और आने वालों के लिए अनीस की शाइराना अज़मत के ए'तिराफ़ की शाहराह खोल दी। बाद में अनीस के बारे में हमारी तन्क़ीद ज़ियादा तर शिबली के दिखाए हुए रास्ते
उर्दू अदब में इत्तिहाद-पसंदी के रुजहानात (२)
एक दूसरे के मज़हबी एतिक़ादात से रू-शनास कराने में मुख़्तलिफ़ तेहवारों को जो अहमियत हासिल है, उसे किसी तरह नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता। आपस के मेल-मिलाप और रब्त-ओ-इर्तिबात ने जिस मुश्तरक हिंदुस्तानी तहज़ीब को पैदा कर दिया था, उसके ज़ेर-ए-असर हिन्दू-मुसलमान
फ़ैज़ को कैसे ना पढ़ें: एक पस साख़्तिती रवय्या
या'नी फ़ैज़ को कैसे न पढ़ें। इसके बग़ैर तो चारा नहीं, या फ़ैज़ को कैसे नहीं पढ़ना चाहिए, या'नी फ़ैज़ की क़िराअत कैसे नहीं करना चाहिए। यहाँ मक़सूद मुअख़्ख़रुज़्ज़िक्र है लेकिन मुज़ारेअ् के साथ कि कैसे न पढ़ें, आमिराना "चाहिए, के साथ नहीं। ख़ाकसार को मन्फ़ी
क़िस्सा उर्दू ज़बान का
उर्दू ज़बान की पैदाइश का क़िस्सा इस लिहाज़ से हिंदुस्तानी ज़बानों में शायद सबसे ज़ियादा दिलचस्प है कि ये रेख़्ता ज़बान बाज़ारों, दरबारों और ख़ानक़ाहों में सर-ए-राह-ए-गुज़र पड़े-पड़े एक दिन इस मर्तबे को पहुँची कि इसके हुस्न और तमव्वुल पर दूसरी ज़बानें
पुरानों की अहमियत
पुरान हिंदुस्तानी देव माला और असातीर के क़दीम-तरीन मज्मुए हैं। हिंदुस्तानी ज़ेहन-ओ-मिज़ाज की, आर्याई और द्रावड़ी अक़ाइद और नज़रियात के इदग़ाम की, नीज़ क़दीम-तरीन क़ब्ल तारीख़ ज़माने की जैसी तर्जुमानी पुरानों के ज़रिए से होती है, किसी और ज़रिए से मुम्किन
क्लासिकी उर्दू शायरी और मिली-जुली मुआशरत
शायरी को मन की मौज कहा गया है यानी ये अलफ़ाज़ के ज़रिए इज़हार है दाख़िली कैफ़ियात और जज़्बात का। दाख़िली कैफ़ियतें आलमगीर होती हैं, मसलन मोहब्बत और नफ़रत, ग़म और ख़ुशी, उम्मीद और ना-उम्मीदी, हसरतों का निकलना या उनका ख़ून हो जाना। ये सब जज़्बे और तख़य्युली
हिन्दुस्तानी फ़िक्र-ओ-फ़लसफ़ा और उर्दू ग़ज़ल
ब-ज़ाहिर ग़ज़ल और फ़लसफ़े का रब्त अजीब-सा मालूम होता है। ग़ज़ल ख़ालिस जमालियाती शायरी है जो जज़्बे और विज्दान के परों से उड़ती है, ये बयान है वारदातों और हुस्न-ओ-इश्क़ की घातों का। इश्क़ और अक़्ल दो मुतज़ाद क़ुव्वतें हैं। चुनाँचे इश्क़िया शायरी में
फ़िक्शन की शेअरियात और साख़्तियात
THE STRUCTURAL PATTERN OF THE MYTH UNCOVERS THE BASIC STRUCTURE OF THE HUMAN MIND THE STRUCTURE WHICH GOVERNSTHE WAY HUMAN BEINGS SHAPE ALL THEIR INSTITUTIONS, ARTIFACTS AND THEIR FORMS OF KNOWLEDGE. (LEVI STARAUSS) साख़्तियाती तरीक़-ए-कार
फ़िराक़-गोरखपुरी: कहाँ का दर्द भरा था तेरे फ़साने में
फ़िराक़ गोरखपुरी हमारे अहद के उन शायरों में से थे जो कहीं सदियों में पैदा होते हैं। उनकी शायरी में हयात-ओ-कायनात के भेद भरे संगीत से हम-आहंग होने की अजीब-ओ-ग़रीब कैफ़ियत थी। उसमें एक ऐसा हुस्न, ऐसा रस और ऐसी लताफ़त थी जो हर शायर को नसीब नहीं होती। फ़िराक़
मंटो की नई पढ़त: मत्न, ममता और ख़ाली सुनसान ट्रेन
मंटो का इंतिक़ाल 1955 में हुआ। इतने लम्बे अर्से के बाद मंटो को दोबारा पढ़ते हुए बा'ज़ बातें वाज़ेह तौर पर ज़ेहन में सर उठाने लगती हैं। मंटो अव्वल-ओ-आख़िर एक बाग़ी था, समाज का बाग़ी, अदब-ओ-आर्ट का बाग़ी, या'नी हर वो शय जिसे Doxa या "रूढ़ी" कहा जाता है
चंद लम्हे बेदी की एक कहानी के साथ: एक बाप बिकाऊ है
राजिंदर सिंह बेदी के किरदार अक्सर-ओ-बेश्तर महज़ ज़मान-ओ-मकाँ के निज़ाम में मुक़य्यद नहीं रहते बल्कि अपने जिस्म की हुदूद से निकल कर हज़ारों लाखों बरसों के इंसान की ज़बान बोलने लगते हैं। इस तरह एक मामूली वाक़िआ, वाक़िआ न रह कर इंसान के अज़ली और अबदी रिश्तों
अनीस की मोजिज़-बयानी: तहज़ीबी जिहात
अनीस के शे'री कमालात का जाइज़ा लेते हुए नहीं भूलना चाहिए कि वही ज़माना जो लखनऊ में ग़ज़ल में नासिख़ीयत के उरूज यानी हैअती मेकानिकियत और तग़ज़्ज़ुल-ओ-तासीर के निस्बतन फ़ुक़्दान का ज़माना है, बहुत सी दूसरी अस्नाफ़ में फ़रोग़-ओ-बालीदगी और तारीख़ी-ओ-तख़्लीक़ी
उर्दू ग़ज़ल के फ़िक्री सरमाए में हिन्दुस्तानी ज़ेह्न की कार-फ़रमाई
ज़बान का मज़हब नहीं होता, लेकिन ज़बान का समाज ज़रूर होता है। हर ज़बान किसी न किसी मख़्सूस समाज में बोली जाती है। उस समाज के मानने वाले अगर एक मज़हब से तअ’ल्लुक़ रखते हैं तो तहज़ीबी ऐतबार से वो समाज एक सतही होता है। लेकिन अगर उस समाज के अफराद में कई मजहब
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बाल-साहित्य1981
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