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अबुल हसनात हक़्क़ी

कानपुर, भारत

अबुल हसनात हक़्क़ी

ग़ज़ल 22

अशआर 30

वो मेहरबान नहीं है तो फिर ख़फ़ा होगा

कोई तो राब्ता उस को बहाल रखना है

बे-नियाज़-ए-दहर कर देता है इश्क़

बे-ज़रों को लाल-ओ-ज़र देता है इश्क़

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ये सच है उस से बिछड़ कर मुझे ज़माना हुआ

मगर वो लौटना चाहे तो फिर ज़माना भी क्या

मैं अपनी माँ के वसीले से ज़िंदा-तर ठहरूँ

कि वो लहू मिरे सब्र-ओ-रज़ा में रौशन है

मैं क़त्ल हो के भी शर्मिंदा अपने-आप से हूँ

कि इस के बाद तो सारा ज़वाल है उस का

पुस्तकें 1

 

वीडियो 9

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वीडियो का सेक्शन
शायर अपना कलाम पढ़ते हुए

अबुल हसनात हक़्क़ी

अबुल हसनात हक़्क़ी

अबुल हसनात हक़्क़ी

अबुल हसनात हक़्क़ी

तमाम हिज्र उसी का विसाल है उस का

अबुल हसनात हक़्क़ी

दिल को हम दरिया कहें मंज़र-निगारी और क्या

अबुल हसनात हक़्क़ी

बे-नियाज़ दहर कर देता है इश्क़

अबुल हसनात हक़्क़ी

शब को हर रंग में सैलाब तुम्हारा देखें

अबुल हसनात हक़्क़ी

शिकस्त-ए-अहद पर इस के सिवा बहाना भी क्या

अबुल हसनात हक़्क़ी

ऑडियो 3

तमाम हिज्र उसी का विसाल है उस का

शिकस्त-ए-अहद पर इस के सिवा बहाना भी क्या

बे-नियाज़ दहर कर देता है इश्क़

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