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अख़्तर शीरानी

1905 - 1948 | लाहौर, पाकिस्तान

सबसे लोकप्रिय उर्दू शायरों में से एक। गहरी रूमानी शायरी के लिए प्रसिद्ध

सबसे लोकप्रिय उर्दू शायरों में से एक। गहरी रूमानी शायरी के लिए प्रसिद्ध

अख़्तर शीरानी के शेर

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पलट सी गई है ज़माने की काया

नया साल आया नया साल आया

किया है आने का वादा तो उस ने

मेरे परवरदिगार आए आए

थक गए हम करते करते इंतिज़ार

इक क़यामत उन का आना हो गया

मुझे है ए'तिबार-ए-वादा लेकिन

तुम्हें ख़ुद ए'तिबार आए आए

चमन वालों से मुझ सहरा-नशीं की बूद-ओ-बाश अच्छी

बहार कर चली जाती है वीरानी नहीं जाती

मुबारक मुबारक नया साल आया

ख़ुशी का समाँ सारी दुनिया पे छाया

चमन में रहने वालों से तो हम सहरा-नशीं अच्छे

बहार के चली जाती है वीरानी नहीं जाती

यहाँ क्या देखते हो नासेहो घर में धरा क्या है

मिरे दिल के किसी पर्दे में ढूँडो यादगार उस की

रात भर उन का तसव्वुर दिल को तड़पाता रहा

एक नक़्शा सामने आता रहा जाता रहा

उन को उल्फ़त ही सही अग़्यार से

हम से क्यों अग़्यार की बातें करें

उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है

दो ज़हर के प्यालों में क़ज़ा खेल रही है

जो भी बुरा भला है अल्लाह जानता है

बंदे के दिल में क्या है अल्लाह जानता है

भुला बैठे हो हम को आज लेकिन ये समझ लेना

बहुत पछताओगे जिस वक़्त हम कल याद आएँगे

कुछ इस तरह से याद आते रहे हो

कि अब भूल जाने को जी चाहता है

याद आओ मुझे लिल्लाह तुम याद करो

मेरी और अपनी जवानी को बर्बाद करो

मुख़्तसर सोहबत है साक़ी जल्द जल्द

जाम उठे मीना बढ़े साग़र चले

काँटों से दिल लगाओ जो ता-उम्र साथ दें

फूलों का क्या जो साँस की गर्मी सह सकें

उठते नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ

किस दर्जा ना-उमीद हैं परवरदिगार से

तू वाइ'ज़ों की सुन मय-कशों की ख़िदमत कर

गुनह सवाब की ख़ातिर सवाब है साक़ी

तू वाइ'ज़ों की सुन मय-कशों की ख़िदमत कर

गुनह सवाब की ख़ातिर सवाब है साक़ी

ग़म-ए-आक़िबत है फ़िक्र-ए-ज़माना

पिए जा रहे हैं जिए जा रहे हैं

ख़फ़ा हैं फिर भी कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में

हमारे हाल पर कुछ मेहरबानी अब भी होती है

किसी मग़रूर के आगे हमारा सर नहीं झुकता

फ़क़ीरी में भी 'अख़्तर' ग़ैरत-ए-शाहाना रखते हैं

मुद्दतें हो गईं बिछड़े हुए तुम से लेकिन

आज तक दिल से मिरे याद तुम्हारी गई

कूचा-ए-हुस्न छुटा तो हुए रुस्वा-ए-शराब

अपनी क़िस्मत में जो लिक्खी थी वो ख़्वारी गई

ग़म अज़ीज़ों का हसीनों की जुदाई देखी

देखें दिखलाए अभी गर्दिश-ए-दौराँ क्या क्या

आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या

क्या बताऊँ कि मेरे दिल में है अरमाँ क्या क्या

अब वो बातें वो रातें मुलाक़ातें हैं

महफ़िलें ख़्वाब की सूरत हुईं वीराँ क्या क्या

दिल में लेता है चुटकियाँ कोई

हाए इस दर्द की दवा क्या है

उस के अहद-ए-शबाब में जीना

जीने वालो तुम्हें हुआ क्या है

अब तो मिलिए बस लड़ाई हो चुकी

अब तो चलिए प्यार की बातें करें

बजा कि है पास-ए-हश्र हम को करेंगे पास-ए-शबाब पहले

हिसाब होता रहेगा या रब हमें मँगा दे शराब पहले

मिट चले मेरी उमीदों की तरह हर्फ़ मगर

आज तक तेरे ख़तों से तिरी ख़ुशबू गई

माना कि सब के सामने मिलने से है हिजाब

लेकिन वो ख़्वाब में भी आएँ तो क्या करें

पारसाई की जवाँ-मर्गी पूछ

तौबा करनी थी कि बदली छा गई

ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना

ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते

इक वो कि आरज़ुओं पे जीते हैं उम्र भर

इक हम कि हैं अभी से पशीमान-ए-आरज़ू!

लॉन्ड्री खोली थी उस के इश्क़ में

पर वो कपड़े हम से धुलवाता नहीं

है क़यामत तिरे शबाब का रंग

रंग बदलेगा फिर ज़माने का

तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ

ये शर्मीली नज़र कह दे तो कुछ गुस्ताख़ियाँ कर लूँ

मुझे दोनों जहाँ में एक वो मिल जाएँ गर 'अख़्तर'

तो अपनी हसरतों को बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ कर लूँ

दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी

'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए

दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए

वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए

मोहब्बत के इक़रार से शर्म कब तक

कभी सामना हो तो मजबूर कर दूँ

सू-ए-कलकत्ता जो हम ब-दिल-ए-दीवाना चले

गुनगुनाते हुए इक शोख़ का अफ़्साना चले

इस तरह रेल के हमराह रवाँ है बादल

साथ जैसे कोई उड़ता हुआ मय-ख़ाना चले

उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं

हाए वो रातें कि जो ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं

कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता

तुम होते सही ज़िक्र तुम्हारा होता

किस को फ़ुर्सत थी ज़माने के सितम सहने की

गर उस शोख़ की आँखों का इशारा होता

ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब

ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता

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