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'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला
बाल अपने बढ़ाते हैं किस वास्ते दीवाने
क्या शहर-ए-मोहब्बत में हज्जाम नहीं होता
ऐ 'मुसहफ़ी' तू इन से मोहब्बत न कीजियो
ज़ालिम ग़ज़ब ही होती हैं ये दिल्ली वालियाँ
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आँखों को फोड़ डालूँ या दिल को तोड़ डालूँ
या इश्क़ की पकड़ कर गर्दन मरोड़ डालूँ
आस्तीं उस ने जो कुहनी तक चढ़ाई वक़्त-ए-सुब्ह
आ रही सारे बदन की बे-हिजाबी हाथ में
आसाँ नहीं दरिया-ए-मोहब्बत से गुज़रना
याँ नूह की कश्ती को भी तूफ़ान का डर है
अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
जाता है जी उधर ही खिंचा काएनात का
अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है कुछ इस का अंजाम
तुझ को मालूम है ऐ दीदा-ए-नम क्या होगा
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इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
ये भी दिल-ए-नामर्द को जुरअत नहीं मिलती
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ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
ये बात कहे उस से कि परवाना है ये भी
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इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
यानी मैं तिरी सूरत जब याद करूँ रोऊँ
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का
शब-ए-तारीक है और मिलती नहीं राह कहीं
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मालूम नहीं मुझ को कि जावेगा किधर को
यूँ सीना तिरा चाक-ए-गरेबाँ से निकल कर
एक नाले पे है मआश अपनी
हम ग़रीबों की है यही मेराज
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उस ने गाली मुझे दी हो के इताब-आलूदा
और मैं सादा उसे लुत्फ़-ए-ज़बानी समझा
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ये कह के बैठ रहूँ हूँ जो अपने घर में ज़रा
तो दिल कहे है ये घबरा के ''मैं तो जाता हूँ''
कमर-ए-यार के मज़कूर को जाने दे मियाँ
तू क़दम इस में न रख राह ये बारीक है दिल
उस के जाने से मिरा दिल है मिरे सीने में
दम का मेहमान चराग़-ए-सहरी की सूरत