सययद मोहम्म्द अब्दुल ग़फ़ूर शहबाज़
ग़ज़ल 5
अशआर 7
ख़ुदा ने मुँह में ज़बान दी है तो शुक्र ये है कि मुँह से बोलो
कि कुछ दिनों में न मुँह रहेगा न मुँह में चलती ज़बाँ रहेगी
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'शहबाज़' में ऐब ही नहीं कुल
एक आध कोई हुनर भी होगा
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शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
बुला बुला के थके हम क़ज़ा नहीं आई
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मिट्टी का ही घर न होगा बर्बाद
मिट्टी तिरे तन का घर भी होगा
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हम रो रो अश्क बहाते हैं वो तूफ़ाँ बैठे उठाते हैं
यूँ हँस हँस कर फ़रमाते हैं क्यूँ मर्द का नाम डुबोता है
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