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ताहिर फ़राज़

रामपुर, भारत

मुशायरों के मक़बूल शायर

मुशायरों के मक़बूल शायर

ताहिर फ़राज़ के शेर

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जिन को नींदों की हो चादर नसीब

उन से ख़्वाबों का हसीं बिस्तर माँग

जेल से वापस कर उस ने पांचों वक़्त नमाज़ पढ़ी

मुँह भी बंद हुए सब के और बदनामी भी ख़त्म हुई

काश ऐसा कोई मंज़र होता

मेरे काँधे पे तिरा सर होता

इस बुलंदी पे बहुत तन्हा हूँ

काश मैं सब के बराबर होता

हादसे राह के ज़ेवर हैं मुसाफ़िर के लिए

एक ठोकर जो लगी है तो इरादा बदल

जब भी टूटा मिरे ख़्वाबों का हसीं ताज-महल

मैं ने घबरा के कही 'मीर' के लहजे में ग़ज़ल

ख़त्म हो जाएगा जिस दिन भी तुम्हारा इंतिज़ार

घर के दरवाज़े पे दस्तक चीख़ती रह जाएगी

कैसे मानूँ कि ज़माने की ख़बर रखती है

गर्दिश-ए-वक़्त तो बस मुझ पे नज़र रखती है

काँपते होंट भीगती पलकें

बात अधूरी ही छोड़ देता हूँ

आदमी हूँ वस्फ़-ए-पैग़म्बर माँग

मुझ से मेरे दोस्त मेरा सर माँग

तमाम दिन के दुखों का हिसाब करना है

मैं चाहता हूँ कोई मेरे आस-पास हो

तारीकियों ने ख़ुद को मिलाया है धूप में

साया जो शाम का नज़र आया है धूप में

उम्र-भर को मुझे बे-सदा कर गया

तेरा इक बार मुँह फेर कर बोलना

उस ज़ाविए से देखिए आईना-ए-हयात

जिस ज़ाविए से मैं ने लगाया है धूप में

दिल भी लहूलुहान है आँखें भी हैं उदास

शायद अना ने शह-रग-ए-जज़्बात काट दी

पुराने अह्द के क़िस्से सुनाता रहता है

बचा हुआ है जो बूढ़ा शजर हमारी तरफ़

क्या ख़बर थी आएगा इक रोज़ ऐसा वक़्त भी

मेरी गोयाई तिरा मुँह देखती रह जाएगी

धूप मुझ को जो लिए फिरती है साए साए

है तो आवारा मगर ज़ेहन में घर रखती है

मिरे हुनर का उसे भी था कुछ अंदाज़ा

मलाल ये है उसे दूसरी शिकस्त हुई

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