तौक़ीर तक़ी
ग़ज़ल 11
अशआर 16
इन सुलगती हुई साँसों को नहीं देखते लोग
और समझते हैं कि जलता नहीं तू भी मैं भी
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जैसे वीरान हवेली में हों ख़ामोश चराग़
अब गुज़रती हैं तिरे शहर में शामें ऐसी
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दामन बचा रहे थे कि चेहरा भी जल गया
किस आग से गुज़र के तिरी रौशनी में आए
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मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा
हाए वो लोग जो मेहवर से निकल जाते हैं
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रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
अश्क बच्चों की तरह घर से निकल जाते हैं
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